महर्षि विश्वामित्र की विनम्रता को लेकर भी वेदों में एक कथा प्रसंग आता है कि किस तरह उन्हें व्यास (विपाशा) और सतलुज (शतद्रु) नदियों ने रास्ता देकर पार कराया था। वैदिक सभ्यता और संस्कृति का मूलाधार नदियां हैं, जलमाताएं धरती पर निर्बाध बहीं। उनके प्रवाह में नाद था। अथर्ववेद के ऋषि ने सीधे उनसे ही कहा-‘आप नाद करती हुई प्रवाहित हैं, सो आपका नाम नदी पड़ा। ऋग्वेद में भारत के अभिजनों का मूल निवास क्षेत्र भी नदीवाचक है, यहां मूल निवास के लिए ‘सप्तसिंधव’ सात नदियों वाले क्षेत्र का उल्लेख है, नदियां सात हैं पर सरस्वती और सिंधु की स्तुतियां ज्यादा हैं, अन्य पांच नदियां सतलज (शुतुद्री), व्यास (विपास), रावी (परूष्णी), चेनाब (आक्सिनी) और झेलम (वितस्ता) है। गंगा, यमुना हैं. यहां रसा (सीर दरिया), अनितमा (आमूदरिया) और कुभा (काबुल नदी) आदि का भी उल्लेख है। ऋग्वैदिक संस्कृति और सभ्यता के अभिजन पश्चिमोत्तर दिशा में अफगानिस्तान तक विस्तृत थे.
ऋग्वेद में कोई 25 नदियों के उल्लेख हैं लेकिन सरस्वती की बात ही दूसरी है; वह नदी है, देवी है, देवता हैं, माता हैं और वाग्देवी (ज्ञान, वाणी की शक्ति) भी हैं. सरस्वती भरतवंशियों की प्रिय नदी है. भरतजन के कारण इस देश का नाम भारत पड़ा है।
ऋग्वेद के एक राजा सुदास का राज्य सरस्वती तट पर था वेद कथा के अनुसार महर्षि विश्वामित्र पिजवन के पुत्र के पुरोहित थे।तब सरस्वती हिमालय से निकलकर सबको सींचते हुए दक्षिणी समुद्र में गिरती थी। तटवर्ती निवासी आर्य बहुत समृद्ध थे। एक बार सुदास ने बहुत बड़ा यज्ञ करवाया। वास्तव में यह यज्ञ उसने विश्वामित्र के मार्ग दर्शन व पौरोहित्य में करवाया था। जब यज्ञ बिना किसी विघ्र बाधा के संपन्न हो गया तो सुदास अति प्रसन्न हुआ। उसने दक्षिणा के रूप में विश्वामित्र जी को बहुत धन दिया। इस दक्षिणा को रथ व छकड़ों पर लाद कर ऋषि अपने अन्य लोगों के साथ वापस जाने को तैयार हो गए। महर्षि विश्वामित्र का काफिला बढ़ता जा रहा था। रास्ते में व्यास (विपाशा) व सतलुज (शतद्रु) नदियों का संगम था। जैसे घुड़साल से छूटी दो घोड़ियां आगे बढ़ने की इच्छा से तेज दौड़ती हैं, वैसे ही ये दोनों नदियां प्रवाहमान थीं। फिर, दूसरी अनुभूति फूटी, जैसे दो सुंदर गाएं बछड़ों को चाटने के लिए तेज भागती हैं, वैसे ही ये सतलुज व व्यास समुद्र से मिलने की ललक में बह रही थीं।
इन नदियों के वेग का शोर सुन कर व उन्हें रौद्र रूप से दौड़ते-भागते देख कर कोई भी पत्थर हृदय व्यक्ति कांप उठे। दोनों ही नदियां बड़े तेज वेग से प्रवाहित हो रही थीं। उनकी तेज गति देख कर विश्वामित्र का रथ एक किनारे पर रुक गया। साथ चले दूसरे लोग भी हैरान थे कि अब आगे कैसे जाया जाए। रथ सहित नदियों को पार नहीं किया जा सकता था।
उधर सभी लोग यात्रा की थकावट से भी चूर-चूर हो चुके थे। उनमें आगे चलने की हिम्मत भी नहीं रही थी। फिर भी वो महर्षि की तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे थे।
आखिर महर्षि विश्वामित्र के मन में विचार आया कि वो विनम्रतापूर्वक नदियों से रास्ता मांगें। भगवान श्री रामचंद्र जी ने भी लंका जाने के लिए समुद्र से प्रार्थना की थी। इसलिए महर्षि ने प्रार्थना करते हुए कहा ‘हे शतद्रु और विपाशा। तुम दोनों माता से भी बढ़कर ममतामयी (सिंधु मातृतमाम्.।) हो। हम तुम्हारे पास आये हैं।’
महर्षि विश्वामित्र की पुकार सुनकर दोनों नदियां विचार करने लगीं। यह विप्र क्या यह चाहता है कि हम इसे रास्ता दे दें। महर्षि की मांग की पूर्ति तो हमें करनी ही चाहिए। लेकिन अड़चन तो यह है कि उन्हें देवराज इंद्र ने तेज वेग से बढऩे का आदेश दे रखा है। यह भी कहा है कि अपने जल से सारे आगे आने वाले प्रदेश को सिंचित करती रहें। इसमें गलती हो सकती है।
महर्षि विश्वामित्र ने नदियों के मौन को भांपते हुए फिर विनती की ‘हे जल से लबालब भरी हुई नदियों! में यह नहीं कह रहा हूं कि तुम अपने प्रबल वेग को बिल्कुल रोक लो। मैं तो केवल यह कह रहा हूं कि तुम अपने-अपने जल को इतना कम कर लो कि मैं रथ, छकड़े और लोगों के साथ पार उतर जाऊं। फिर जैसी की तैसी हो जाओ। दूसरी बात यह है कि पार हो जाने पर हम तुम्हें सोम-रस प्रदान करेंगे।’
नदियों ने कहा, ‘महर्षि! हम देवराज इंद्र की आज्ञा पालन में कभी चूक नहीं होने देतीं। क्योंकि उन्होंने ही वज्र से खोदकर हमें जन्म दिया है। मेघों के द्वारा हमें जीवन दिया है। अपने कल्याणकारी हाथों से हमें सहारा देते हुए समुद्र तक पहुंचाया है। फिर उसी के हाथों हमें सौंप दिया है। इस तरह हम दोनों उन्हीं की ऋणी हैं और उन्हीं की आज्ञा का पालन करती हैं।’
इस तरह नदियों ने पहले तो महर्षि विश्वामित्र को अपने दिल की बात साफ-साफ बता दी और फिर उनकी मांग को यह कहते हुए स्वीकार भी कर लिया, ‘महर्षे ! जैसे ममतामयी मां अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिए झुक जाती है वैसे ही हम भी तुम्हारे लिए कम जल वाली हो जाती हैं। जल इतना कम कर दे रही हैं कि तुम्हारे रथ के धूरे ऊपर रहें। तुम दूर से आये हो। थक भी गये हो इसलिए छकड़े और रथ आदि के साथ पार हो जाओ।’ महर्षि विश्वामित्र ने उन नदियों को जो ‘मातृतमाम्’ कहा था, उसे नदियों ने चरितार्थ कर दिखाया और अपनी वत्सलता का परिचय दिया।
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