आज की चर्चा में हम बताएँगे की श्राध्द क्या होता है और पितृपक्ष ( श्राद्ध ) में क्या करें और क्या ना करें : पितरो के उद्देश्य से विधि पूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता हैं , उसे श्राद्ध कहते हैं| श्राद्ध का वर्णन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों ग्रंथो से प्राप्त किया जा सकता हैं | अतः मनुष्य को पितृगण की संतुष्टि एवं अपने कल्याण के लिए श्राद्ध अवश्य करना चाहियें |
- महर्षि पराशर के अनुसार – देश, काल तथा पात्र में विधिद्वारा जो कर्म तिल और कुश द्वारा मंत्रो से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाए वही श्राद्ध हैं|
- पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पुत्र, आयु, आरोग्य, अतुल ऐश्वर्य और अभिलाषित वस्तुओं की प्राप्ति होती हैं|
- कर्मपुराण पुराण के अनुसार जो व्यक्ति शान्त मन होकर विधिपूर्वक श्राद्ध करता हैं, वह सभी पापों से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त करता हैं, फिर संसार-चक्र में नहीं आता |
श्राद्ध सांसारिक जीवन को सुखमय बनाता ही है, परलोक को भी सुधारता है तथा अंत में मुक्ति भी प्रदान करता है अर्थात श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितृगण श्राद्ध कर्ता को दीर्घ आयु, योग्य संतति, धन, विद्या व सारे सुख एवं मोक्ष प्रदान करते हैं |
आज के समय में अधिकत्तर लोग श्राद्ध को बेकार समझ कर नही करते हैं | जो लोग श्राद्ध करते हैं उनमें कुछ लोग यथा विधि श्रद्धा के साथ श्राद्ध करते है किन्तु अधिकतर लोग रस्म रिवाज की दृष्टि से श्राद्ध करते हैं | वास्तव में श्रद्धा भक्ति द्वारा शास्त्रोक्त विधि से किया हुआ श्राद्ध ही सर्व विध कल्याण प्रदान करता है | अतः प्रत्येक व्यक्ति को श्रद्धा पूर्वक शास्त्रोक्त समस्त श्राद्ध को यथा समय करते रहना चाहिए|
पितृपक्ष के साथ पितरो को विशेष सम्बन्ध रहता हैं | यह भाद्र पद ,शुक्ल पक्ष की पुर्णिमा से प्राम्भ हो जाता है, जो अमावस्या तक रहता हैं | शुक्ल पक्ष पितरो की रात्रि कही गयी हैं | मनु स्मृति में कहा गया हैं – मनुष्य के एक मास के बराबर पितरो का एक दिन-रात होता हैं | मास में दो पक्ष होते हैं, कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष | कृष्ण पक्ष पितरो के कर्म का दिन होता है और शुक्ल पक्ष पितरो के सोने क लिए रात होती हैं | पितृपक्ष में पितृश्राद्ध करने का विधान हैं | शास्त्रों में पितृपक्ष में श्राद्ध करने की विशेष महिमा लिखी गयी हैं | जिसके अनुसार पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पुत्र, आयु, आरोग्य, अतुल ऐश्वर्य और अभिलाषित वतुओ की प्राप्ति होती हैं|
श्राद्ध करने की संक्षिप्त विधि :- अन्त्यकर्म-श्राद्ध प्रकाश के अनुशार सामन्य रूप से वर्ष में कम से कम दो बार श्राद्ध करना अनिवार्य हैं | इसके अलावा अमावस्या, व्यतिपात, संक्रांति आदि पर्व की तिथियों में भी श्राद्ध करने की विधि हैं |
१} क्षयतिथि– जिस दिन व्यक्ति की मृत्यु होती हैं, उस तिथि पर वार्षिक श्राद्ध करना चाहिए| शास्त्रों में क्षयतिथि पर एको द्दिष्टश्राद्ध करने का विधान है | कुछ जगहों पर इस श्राद्ध को पार्वर्णश्राद्ध भी कहते हैं | एकोद्दिष्ट का अर्थ केवल मृत व्यक्ति के लिए एक पिंड का दान तथा कम से कम एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाए या अधिक से अधिक तीन ब्राह्मणों लो भोजन कराया जाए |
२} पितृपक्ष– पितृपक्ष में मृत व्यक्ति के मरने की जो तिथि आये, उस तिथि पर मुख्य रूप से एकोद्दिष्ट श्राद्ध का विधान हैं | यथासंभव पिता की मृत्यु तिथि पर इसे अवश्य करना चाहिए | एकोद्दिष्ट श्राद्ध में पिता, दादा, पर दादा, सपत्निक अर्थात माता, दादी, पर दादी इस प्रकार तीन चट में छ: व्यक्तियों का श्राद्ध होता हैं | इसके साथ ही नाना, परनाना, वृद्ध परनाना सपत्निक अर्थात नानी, परनानी, वृद्ध परनानी यह भी तीन चट में छ: लोगो का श्राद्ध होगा | इसके अतरिक्त एक चट और लगाया जाता है, जिस पर अपने निकटतम सम्बंधियों के निमित पिंडदान किया जाता हैं | इसके अतरिक्त दो विश्वेदेव के चट लगाये जाते हैं | इस तरह नौ चट लगा कर एकोद्दिष्ट श्राद्ध संपन्न होता हैं | एकोद्दिष्ट श्राद्ध में नौ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए यदि कम करना हो तो तीन ब्राह्मण | यदि अच्छे ब्राह्मण उपलब्ध ना हों तो कम से कम एक संध्यावंदन करने वाले एक कर्मकांडी सात्विक ब्राह्मण को भोजन अवश्य करना चाहिए |
श्राध्द में निषिद्ध बातें
श्राद्ध कर्ता को श्राध्द के दिन प्रमुख सात बातो को नहीं करना चाहियें – पान आदि न खाएं, शारीर में तेल न लगायें, दूसरो का भोजन न करें, श्राध्दकर्म करने तक उपवास रखें , औषधि आदि न लें और सम्भोग न करें |
श्राद्ध भोक्ता के लिए प्रमुख आठ वस्तुओं का निषेध हैं – पुनभोर्जन(दुबारा भोजन न करे ) यात्रा, भार ढोना, परिश्रम, मैथुन, दान, प्रतिग्रह तथा होम. श्राद्ध भोजन करने वाले को इन आठ बातों से बचना चाहिए |
श्राध्द मे लोहे के पात्र {बर्तन} का सर्वथा निषेध:
श्राद्ध मे लोहे के पात्रका उपयोग कदापि नहीं करना चाहिए | लोहपात्र मे भोजन करना भी नहीं चाहिए तथा ब्राह्मण को भी लोहपात्र मे भोजन नहीं करना चाहिए |यहाँ तक की भोजनालय मे भी इसका उपयोग नहीं करना चाहिए | केवल शाक फल काटने मे ही प्रयोग कर सकते हैं | लोहे के दर्शन मात्र से ही पितर वापस चले जाते हैं | ऐसा अन्त्यकर्म श्राद्धप्रकाश में लिखा हैं |
निषिध्द कुश
चिता मे बिछाए हुए, रास्ते मे पड़े हुए, पितृ तर्पण एवम ब्राह्मण यज्ञ, बीछौने, गंदगी और आसनों मे से निकले हुए अपवित्र कुश निषिध्द होते हैं |
निषिध्द गंध व पुष्प
श्राद्ध में पुरानी लकडियो के चन्दन, कस्तूरी, रक्त चन्दन, गोरोचन, सल्लक तथा पूतिक आदि निषिध्द हैं| श्राद्ध में कदम्ब का फूल, मौलसिरी, बेलपत्र, करवीर, लाल तथा काले रंग के सभी फूल तथा उग्र गंध वाले सभी फूल वर्जित हैं |
निषिध्द ब्राह्मण
श्राद्ध में चोर, पतित, नास्तिक, मुर्ख, धूर्त, मांस विक्रेता, व्यापारी, नौकर, काले दांत वाले, शुल्क ले कर पढ़ाने व पढने वाले, जुआरी, कुश्ती सिखाने वाला, नपुंशक इत्यादी अधम ब्राह्मणों का त्याग करना चाइये |
( ये कई पुराणों जैसे कुर्म पुराण, विष्णु पुराण आदि से संकलित हैं)
निषिध्द अन्न व सब्जी
राजमाष (काली उरद), मसूर, अरहर, सब्जी में गाजर कुम्हड़ा, गोल लौकी, बैगन, सल्जम, हींग , प्याज, लहसुन, काला नमक, काला जीरा, सिंघाड़ा, जामुन, कुल्थी, कैथ, महुआ, अल्सी, चना ये सब वस्तुए श्राद्ध में वर्जित हैं |
बृहत्पराशर में कहा गया हैं कि श्राद्ध में मांस देने वाला व्यक्ति मानो चन्दन की लकड़ी जला कर उसका कोयला बेचता हैं | श्रीमद्भागवत में कहा गया है की न तो कभी मांस खाना चाहिए और न ही श्राद्ध में देना चाहिए| सात्विक अन्न-फलो से पितरो की सर्वोत्तम तृप्ति होती हैं | मनुष्य को पितृ गण की संतुष्टी तथा अपने कल्याण के लिए श्राद्ध अवश्य करना चाहिए | श्राद्ध कर्ता केवल अपने पितरों को ही तृप्त नहीं करता,बल्कि वह सारे जगत को संतुष्ट करता हैं |(ब्रह्मपुराण)
Post Credit : Jyotish Rachna
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