भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं….
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥
(गीता 16/23)
जो मनुष्य कामनाओं के वश में होकर शास्त्रों की विधियों को त्याग कर अपने ही मन से उत्पन्न की गयीं विधियों से कर्म करता है। वह मनुष्य न तो सिद्धि को प्राप्त कर पाता है, न सुख को प्राप्त कर पाता है और न परम-गति को ही प्राप्त हो पाता है।
जिस प्रकार भौतिक रूप से किये जाने वाले कार्यों के नियम होते हैं, उन नियमों पर चलकर ही भौतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक रूप से किये जाने वाले कार्यों के नियम होते हैं।
जो व्यक्ति इन नियमों का दृड़ता पूर्वक पालन करता है, उसी व्यक्ति का आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है, और उसी व्यक्ति का मनुष्य जीवन सफल होता है।
मनुष्य-योनि केवल “आध्यात्मिक उन्नति” के लिये ही प्राप्त होती है, सांसारिक भोंगों के सुख तो देव-योनि से लेकर पशु-योनि तक मनुष्य योनि के मुकाबले बहुत अधिक प्राप्त होते हैं।
“आध्यात्मिक उन्नति” का मार्ग उसी व्यक्ति का प्रशस्त होता है, जो शास्त्रों में बताये गये नियमों का दृड़ता पूर्वक आचरण करता है, उन्हीं नियमों को सार रूप में यहाँ प्रस्तुत किया गया हैं।
“आध्यात्मिक उन्नति” चाहने वाले जिज्ञासु व्यक्तियों के लिये इन नियमों का पालन अत्यन्त आवश्यक है, “भौतिक” उन्नति तो व्यक्ति के प्रारब्ध पर निर्भर करती है।
(1) “विश्वास” और “धीरज” नाम के इन दो शब्दों के वास्तविक अर्थ को समझकर इन्हें सदैव याद रखने का प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि, विश्वास न होने पर अविश्वास स्वतः ही उत्पन्न हो जाता है, जिससे स्वभाव में धीरजता के स्थान पर अधीरता उत्पन्न हो जाती है।
(2) जब तक यह विश्वास न हो जाये कि सामने वाला व्यक्ति मुझसे अधिक ज्ञानी है, तब तक उस व्यक्ति से प्रश्न कभी नहीं पूछना चाहिये, हमेशा स्वयं को अज्ञानी, और सामने वाले व्यक्ति को ज्ञानी समझकर ही वार्तालाप करना चाहिये। क्योंकि, ऎसा करने से सामने वाले व्यक्ति का ज्ञान और सदगुण हमारे अन्दर स्वतः ही प्रवेश कर जाते हैं।
(3) जब भी किसी व्यक्ति से प्रश्न करें तो कम से कम शब्दों में करने का प्रयत्न करना चाहिये, और प्रश्न करते समय प्रश्न को समझाने का भाव नहीं होना चाहिये, केवल समझने का भाव होना चाहिये।
क्योंकि, समझाने के भाव से एक प्रश्न करने से अनेक प्रश्न एक साथ स्वतः ही हो जाते हैं, जिससे उत्तर देने वाला जब उन अनेकों प्रश्नों का उत्तर एक-एक करके देने लगता है तो व्यक्ति अपना धीरज खोने लगता है, इस कारण समझना कठिन हो जाता है।
(4) जब तक पहले प्रश्न का उत्तर न मिल जाये और संतुष्ट न हो जायें, तब तक दूसरा प्रश्न कभी नहीं करना चाहिये, और जो भी उत्तर मिले, उसे सहज भाव से स्वीकार करने का प्रयत्न करना चाहिये।
क्योंकि, सहज भाव से उत्तर स्वीकार न करने से व्यक्ति का अविश्वास स्वयं सिद्ध हो जाता है।
(5) किसी भी प्रश्न के उत्तर को स्वीकार करते समय केवल यह समझने का भाव होना चाहिये, कि उत्तर देने वाला सही है, हो सकता है कि शब्दों का वास्तविक अर्थ मेरी समझ में नहीं आया है, बाद में एकान्त में विचार करना चाहिये।
क्योंकि, एकान्त में विचार करने से उन शब्दों के वास्तविक अर्थ स्वतः ही समझ में आ जाते हैं। जब मन उसे स्वीकार करे तभी उस उत्तर को स्वीकार करके उसी अनुसार आचरण करने का प्रयत्न करना चाहिये।
(6) जब तक उत्तर देने वाला व्यक्ति, उत्तर देकर शान्त न हो जाये, तब तक बीच में बोलना नहीं चाहिये। बीच में बोलने से नया प्रश्न उत्पन्न हो जाता है। क्योंकि, नया प्रश्न उत्पन्न होने से उत्तर देने वाले व्यक्ति का ध्यान भंग हो जाता है, जिससे कुछ भी समझ पाना कठिन हो जाता है, और समय बर्बाद हो जाता है।
(7) जब तक उत्तर से पूर्ण संतुष्ट न हो जायें, तब तक उसी प्रश्न पर ही दृष्टि रखकर ही प्रश्न करना चाहिये, किसी भी उत्तर पर प्रश्न कभी नहीं करना चाहिये। यदि उत्तर के किसी शब्द का अर्थ समझ में न आये तो निर्मल भाव से प्रश्न अवश्य करना चाहिये। क्योंकि, जब शब्द पर प्रश्न किया जाता है तब उत्तर देने वाला समझ जाता है कि प्रश्न करने वाला का ध्यान से सुन रहा है, और जब उत्तर पर प्रश्न किया जाता हैं तो वार्तालाप बहस का रूप धारण कर लेती है, जिससे संतोष के स्थान पर असंतोष उत्पन्न हो जाता है।
(8) जब भी किसी भी प्रकार की वार्तालाप बहस में परिवर्तित महसूस हो तो क्षमा माँगकर बात को समाप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि, क्षमा मांगने से अहंकार मिटता है जिससे मन में संतोष का भाव उत्पन्न हो जाता है।
(9) जब यदि कोई आपसे प्रश्न करे तो कम से कम शब्दों में उत्तर देने का प्रयत्न करना चाहिये, और केवल अपना ही दृष्टिकोण ही प्रस्तुत करना चाहिये। उस दृष्टिकोण को ही सर्वोच्च समझने का प्रयत्न कभी नहीं करना चाहिये। क्योंकि, ऎसा समझने से श्रेष्ठता का दम्भ उत्पन्न हो जाता है जिसके कारण समझने का भाव समाप्त हो जाता है।
(10) आध्यात्मिक चर्चा को कभी भी सार्वजनिक स्थान पर नहीं करना चाहिये, सार्वजनिक स्थान पर आध्यात्मिक चर्चा, हमेशा बहस का रूप धारण कर लेती है। क्योंकि, आध्यात्म सत्य है, सत्य को किसी भौतिक प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है, सत्य को तो विश्वास के साथ केवल धारण करना होता है।
(11) आध्यात्मिक वार्तालाप करते समय बुद्धि के द्वारा केवल मन को शरणागत भाव में स्थिर रखने का प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि, मन सदैव बुद्धि के अधीन होता है, मन के शरणागत भाव में स्थिर होने पर ही सत्य का आचरण होता है।
(12) जब भी आध्यात्मिक वार्तालाप करें तो पहले यह निश्चित अवश्य कर लें, कि मैं अपना ज्ञान देना चाहता हूँ, या सामने वाले व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। क्योंकि, एक समय में केवल एक ही कार्य करना संभव होता है।
(13) जब ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, तो धैर्य के साथ समझने का प्रयास करना चाहिये, जहाँ शरीर हो वहीं पर मन को भी होना चाहिये। अधिकतर व्यक्तियों का शरीर तो वार्तालाप के समय वहाँ होता है, लेकिन मन वहाँ नहीं होता है।
क्योंकि, शरीर की समस्त इन्द्रियों की क्रिया मन के अधीन होती हैं, मन शरीर के साथ न होने पर कुछ भी समझना असंभव होता है।
(14) जब किसी को ज्ञान देना चाहतें हैं, तो केवल अपना भाव ही प्रस्तुत करें, सामने वाले व्यक्ति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा इस बात से मतलब नहीं होना चाहिये। सामने वाले व्यक्ति पर उसकी अवस्था के अनुरूप ही प्रभाव पड़ता है।
क्योंकि, जिस प्रकार भौतिक रूप से दो व्यक्ति एक स्थान पर एक साथ खड़े नहीं हो सकते हैं, उसी प्रकार संसार में सभी व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से अलग-अलग अवस्था में होते हैं।
(15) अपना भाव प्रस्तुत करना हमारा स्वयं का कर्म होता है, और सामने वाले व्यक्ति पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है, यह सामने वाले व्यक्ति का कर्म होता है और हमारे लिये फल होता है। क्योंकि, सामने वाले व्यक्ति के कर्म को देखने से फल की आसक्ति उत्पन्न होती है, और फल की आसक्ति के कारण ही सांसारिक कर्म-बन्धन उत्पन्न होता है, सांसारिक कर्म-बंधन ही तो आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा होता है।
वार्तालाप करते समय प्रायः ऎसा ही होता है कि वास्तविक रूप से हम सामने वाले व्यक्ति से समझना चाहतें है, लेकिन हम उसी व्यक्ति को समझाने लग जाते हैं, इस बात का एहसास ही नहीं होता है कि हम समझना चाहते हैं, या समझाना चाहते हैं।
इसका मूल कारण है हम सभी मोह रूपी जगत के अंधकार (मोहनिशा) में सोए हुये हैं, इस मोहनिशा से केवल मनुष्य जीवन में ही जागना संभव है।
जब तक हम इन नियमों का दृड़ता पूर्वक पालन नहीं करेंगे तब तक हमारे आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर चलने के सभी प्रयत्न विफल होते रहेंगे, जिससे हमारा मनुष्य जीवन व्यर्थ हो जायेगा।
मनुष्य जीवन में आध्यात्मिक उन्नति के लिये ही कार्य करना ही एक मात्र उद्देश्य होता है, हमारा मनुष्य जीवन व्यर्थ न हो जाये इसलिये आज से ही हमें इन नियमों के पालन करने का प्रयत्न आरम्भ कर देना चाहिये।
क्योंकि मनुष्य के लिये समय से मूल्यवान अन्य कोई वस्तु नहीं होती है।
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