लखनऊ से 35 किलोमीटर दूर बाराबंकी में स्थित देवा शरीफ, वह मजार है, जहां दूर दूर से लोग अपनी फरियाद लेकर मत्था टेकने आते हैं इनके बारे में कर्इ चमत्कारी बातें प्रचलित हैं।
धर्मगुरू बताते है कि जिस भी किसी श्रद्धालु की मुराद पूरी होती है उसे पुनः बाबा के दर्शन करने आना चाहिए। किसी ने सोचा भी नहीं था कि देवा जैसी छोटी सी जगह पर पैदा हुआ एक बच्चा र्इश्वर का एक ऐसा दूत बनकर आया है जिसकी ख्याति सम्पूर्ण विश्व में फैलने वाली है। सबसे महतवपूर्ण बात ये है कि ये ख्याति सभी जाति धर्मों के बन्धनों से परे इंसानियत की नुमाइंदगी करती है।
र्इश्वर की अलौकिक आभा से परिपूर्ण इस प्यारे से बच्चे का नाम था हाजी वारिस अली शाह. सैययद वारिस अली शाह का जन्म 1810 ईसवी के आस-पास का माना जाता हैं। हिन्दू और मुस्लिम उन्हें वेदान्त और सूफी का सच्चा प्रदर्शक मानते थे। ये पहले सूफी दर्वेश थे जिन्होंने सात समुन्दर पार कर्इ देशों का भ्रमण किया जिसमें मुख्य रूप् से यूरोप शामिल था।
इनके बारे में कर्इ चमत्कारी बातें प्रचलित है। कहा जाता है कि उनके पैरो में कभी भी धूल नहीं लगती थी जबकि वो हमेशा नंगे पैर ही भ्रमण करते थे और जब किसी के गलीचे पे पांव रखते तो भी धूल के कोर्इ निशान नहीं पड़ते थे। उन्होंने हमेशा साप्रदायिक सौहार्दय एवं वैशिवक भाइचारे को बढ़ावा दिया।
6 अप्रैल सन 1905 र्इ0 में हाजी वारिस अली शाह जी की मृत्यु हो गर्इ। जिस स्थान पर इनें सुपुर्देखाक किया गया वहीं पर इनका भव्य मकबरा बनाया गया जिसे देवा शरीफ के नाम से जाना जाता है। इस मकबरे के निर्माण में हिन्दु और मुसिलम दोनों समुदाय के लोगों ने बढ़ चढ़ कर सहयोग किया। यह मकबरा साम्प्रदायिक एकता और भाइचारे की मिसाल पेश करता है। यहां सैलानी पाकिस्तान और कर्इ मध्य पूर्व देशों से भी आते हैं और इस पवित्र दरगाह पर अपनी मन्नतों की पूरा करने के लिये आते हैं।
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