अध्यात्म

क्योँ मंदिर जाना होता है सेहत के लिए फायदेमंद

Written by Bhakti Pravah

हिंदू धर्म दुनिया का सबसे पुराना धर्म है और हम उस संस्कृति का पालन करते हैं जो हमें पूर्वजों से विरासत में मिली है। काफी समय से, हमने अपने पूर्वजों के ज्ञान और उनकी परम्पराओं को बिना किसी शर्त या ना-नुकुर के अपनाते और दोहराते आए हैं। हम जिन परम्पराओं और अनुष्ठानों में हिस्सा लेते हैं उन सबके पीछे बहुत बड़ा तर्क है और ऐसा ही महत्वूपर्ण कार्य है हमारा मंदिर जाना। हमने डॉ. सूर्या भगवती से बात की जो डॉ. वैद्य की संस्था न्यू एज आयुर्वेद से जुड़े हुए हैं और हमने उनसे पूछा मंदिर जाने के पीछे के विज्ञान के बारे में। डॉ. भगवती ने जो कुछ भी बताया वह जानकर हमे आश्चर्य और हैरानी हुई।

वह कहती हैं, “मंदिर आशीर्वाद प्राप्त करने का स्थान है, जहां अमीर-ग़रीब, पंथ या धर्म का कोई भेदभाव नहीं होता है। मंदिर में प्रवेश करनेवाला हर व्यक्ति एक सकारात्मक विचार के साथ मंदिर आता है,  जिससे वहां एक सकारात्मकता माहौल पैदा होता है। यह हमारे मन को शांत करता है और हमारा मन मंदिर में मौजूद सकारात्मक कंपन या वायब्रेशन और ऊर्जा को अधिक से अधिक मात्रा में अवशोषित करने में मदद कर सकता है। “

“हम मनुष्यों को 5 इंद्रियां मिली हैं और मंदिर में किए जानेवाले प्रत्येक अनुष्ठान जैसे- घंटी बजाने, कपूर जलाने, फूल चढ़ाने, तिलक लगाने और मंदिर की प्रदक्षिणा करने का मतलब है, हमारी इन सभी इंद्रियों को सक्रिय करना।” एक बार इन सभी इंद्रियों के सक्रिय हो जाने के बाद, मानव शरीर मंदिर में मौजूद सकारात्मक ऊर्जा को ज़्यादा से ज़्यादा ग्रहण कर सकता है।

वह आगे बताती है: “ये प्रथाएं वास्तव में, हमारे शरीर में सभी 7 चिकित्सा केंद्रों को सक्रिय करती हैं।” इसमें कोई हैरानगी की बात नहीं है कि कई लोगों ने धार्मिक महत्व के स्थानों  जैसे मंदिर, मस्ज़िद या चर्च में जाने के बाद पहले से बेहतर और ठीक होने की बात कही है।

हम मंदिर में नंगे पैर क्यों जाते हैं?

आप चाहे उत्तर भारत से हों या दक्षिण भारत से, हमारे देश में किसी भी मंदिर के पवित्र क्षेत्र में जूते पहनकर जाने की मनाही है। “दरअसल मंदिर के अंदर के क्षेत्र में चुंबकीय और विद्युत कंपन बहुत अधिक होता है। यहां तक कि मंदिर की फर्श भी इस तरह की होती है कि वह सकारात्मक ऊर्जा को अवशोषित कर पाती हैं। इसीलिए फर्श पर नंगे पांव चलने से आपके शरीर के माध्यम से आप सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त कर पाने में मदद होगी।” यह कहना है डॉ. भगवती का जिनके अनुसार मंदिर में नंगे पैर चलना अपना अहंकार त्यागने का भी प्रतीक है।

मंदिर में घंटियां क्यों बजायी जाती हैं?

मंदिर की घंटी सीसा, तांबे, कैडमियम, जस्ता और निकल जैसी धातुओं के संयोजन से बनती हैं। घंटी बजाने पर एक सुखद नाद या आवाज़ उत्पन्न होती है जो आपको शांत करने में मदद करती है “जब आप मंदिर की घंटी बजाते हैं तो सुनने की शक्ति सक्रिय होती है। यह शंखनाद या घंटों की आवाज़ मस्तिष्क के दोनों हिस्सों के बीच सद्भाव पैदा करती है,” डॉ. भगवती ने समझाया।”

मंदिर में कपूर क्यों जलाया जाता है?

डॉ. भगवती के अनुसार कपूर जलाने के दो उद्देश्य हैं। पहला, अक्सर आरती के दौरान आरती की थाली में कपूर या कैम्फर (Camphor) जलाया जाता है, क्योंकि यह आपकी दृष्टि को सक्रिय करती है।  जब आरती की थाली हमारे सामने लाई जाती है, तो हम अपने हथेलियों को जलती हुई लौ पर रखते हैं। आरती लेने के बाद अपने हाथों से हमारे सिर या आंखों को छूते हैं, और हम उसकी ऊष्मा को अपने शरीर तक पहुंचाते हैं। ऐसा करने से, स्पर्श की हमारी भावना सक्रिय हो जाती है।

मंदिर में फूल क्यों चढ़ाए जाते हैं?

हम लक्ष्मी को कमल चढ़ाते हैं तो गणेश जी को हिबिस्कुस का फूल चढ़ाते हैं। हमारे मंदिरों में यह आमतौर पर होता है। सुंदर रंगों और मीठी-सी खूशबू के साथ मिलकर हम अपने ख़राब मूड को ठीक कर सकते हैं। डॉ. भगवती कहती हैं कि कोमलता से स्पर्श का भाव भी सक्रिय होता है।

‘तीर्थम्’ या पवित्र जल, मंदिर में मूर्ति के सामने एक तांबे या चांदी के लोटे में रखा गया जड़ी-बूटियों, फूलों और शुद्ध पानी का मिश्रण है। डॉक्टर भगवती कहती हैं, “इससे हमारी स्वाद की भावना सक्रिय होती है।” तांबे जैसी धातुओं के बर्तन में पानी पीना सेहत के लिहाज से बहुत फायदेमंद होता है। “पानी को 8 घंटे से अधिक समय या रातभर के लिए तांबे के बर्तनों में रखने और बाद में पीने से त्रिदोष (पित्त, वात और कफ) संतुलित करने में मदद हो सकती है। दरअसल तांबा सकारात्मक वायब्रेळम्ल को पानी के साथ घोल देता है, इस जल को पीने  पर शरीर को कई प्रकार से फायदा पहुंचता है। डॉ. भगवती कहती हैं, “जब आप तीर्थम पीते हैं, तो जुकाम, खांसी और गले में खिचखिच जैसी समस्याएं कम हो जाती हैं।”

प्रदक्षिणा क्यों की जाती है?

प्रार्थना पूरी हो जाने के बाद, मूर्ति या मंदिर के चारों तरफ घड़ी की दिशा में घूमना पड़ता है। इसे परिक्रमा या प्रदक्षिणा कहा जाता है। डॉ. सूर्या भगवती कहती हैं, ” प्रदक्षिणा का शाब्दिक अर्थ है ‘दाहिनी ओर’। जब तक प्रदक्षिणा की जाती है, शरीर मूर्ति और मंदिर परिसर से अच्छी कंपन को अवशोषित करता है, और इस तरह अपने अच्छे स्वास्थ्य और मन की शांति प्राप्त करने का एक कार्य होता है।

मंदिर के अनुष्ठान और परम्पराएं ढकोसला या अंधविश्वास नहीं हैं, लेकिन बहुत से लोग  इन परम्पराओं के पीछे का तर्क पता किए बगैर ऐसा ही मान बैठते हैं। इस बात के कई सबूत है हिंदू धर्म के प्रत्येक कार्य के पीछे प्रतीकात्मक और वैज्ञानिक उद्देश्य हैं।

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