अध्यात्म

किसे कहते हैं सृष्टि?

Written by Bhakti Pravah

सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु था न आकाश, न मृत्यु थी और न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही एक था जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से साँस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ नहीं था।”.

विश् धातु से बना है विश्व। इसी धातु से विष्णु बनता है। ब्रह्मांड समूचे विश्व का दूसरा नाम है। इसमें जीव और निर्जीव दोनों सम्मिलित हैं। संसार जन्म और मृत्यु के क्रम को कहते हैं। जगत का अर्थ होता है संसार। यही सब कुछ सृष्टि है, जो बनती-बिगड़ती रहती है।

सृष्टि मूलतः संस्कृत का शब्द है। इसे संसार, विश्व, जगत या ब्रह्मांड भी कह सकते हैं। हिंदू धर्म के स्मृति के अंतर्गत आने वाले इतिहास ग्रंथ पुराणों अनुसार इस सृष्टि के सृष्टा ब्रह्मा हैं। इस सृष्टि का सृष्टिकाल पूर्ण होने पर यह अंतिम ‘प्राकृत प्रलय’ काल में ब्रह्मलीन हो जाएगी। फिर कुछ कल्प के बाद पुन: सृष्टि चक्र शुरू होगा।

इस सृष्टि में मनु के पुत्र मानव बसते हैं। सूर्य को सम्पूर्ण सृष्टि की आत्मा कहा गया है। सूर्य अनेक हैं। प्रलय के बाद सृष्टि और सृष्टि के बाद प्रलय प्रकृति का नियम है।

सृष्टि चक्र
इस सृष्टि में मनु के पुत्र मानव बसते हैं। सूर्य को सम्पूर्ण सृष्टि की आत्मा कहा गया है। सूर्य अनेक हैं। प्रलय के बाद सृष्टि और सृष्टि के बाद प्रलय प्रकृति का नियम है।

ब्रह्मांड को प्रकृति या जड़ जगत कहा जा सकता है। इसे यहाँ हम समझने की दृष्टि से सृष्टि भी कह सकते हैं। इस ब्रह्मांड या सृष्टि में उत्पत्ति, पालन और प्रलय लगातार चलती रही है और अभी भी जारी है और जारी रहेगी। चार तरह की प्रलय है, नित्य, नैमित्तिक, द्विपार्ध और प्राकृत। प्राकृत में प्रकृति हो जाती है भस्मरूप। भस्मरूप बिखरकर अणुरूप हो जाता है।

श्रु‍ति के अंतर्गत आने वाले हिंदू धर्मग्रंथ वेद सृष्‍टि को प्रकृति, अविद्या या माया कहते हैं- इसका अर्थ अज्ञान या कल्पना नहीं। उपनिषद् कहते हैं कि ऐंद्रिक अनुभव एक प्रकार का भ्रम है। इसके समस्त विषय मिथ्या हैं।

जगत मिथ्‍या है:
इसका अर्थ यह है कि जैसा हम देख रहे हैं जगत वैसा नहीं है इसीलिए इसे माया या मिथ्‍या कहते हैं अर्थात भ्रमपूर्ण। जब तक इस जगत को हम अपनी इंद्रियों से जानने का प्रयास करेंगे हमारे हाथ में कोई एक परिपूर्ण सत्य नहीं होगा।

जगत संबंधी सत्य को जानने के लिए ऐंद्रिक ज्ञान से उपजी भ्रांति को दूर करना जरूरी है। जैसा कि विज्ञान कहता है कि कुछ पशुओं को काला और सफेद रंग ही दिखाई देता है- वह जगत को काला और सफेद ही मानते होंगे। तब मनुष्य को जो दिखाई दे रहा है उसके सत्य होने का क्या प्रमाण?

यही कारण है कि प्रत्येक विचारक या धार्मिक व्यक्ति इस जगत को अपनी बुद्धि की को‍टियों के अनुसार परिभाषित करता है जो कि मिथ्याज्ञान है, क्योंकि जगत को विचार से नहीं जाना जा सकता।

हमारे ऋषियों ने विचार और चिंतन की शक्ति से ऊपर उठकर इस जगत को जाना और देखा। उन्होंने उसे वैसा ही कहा जैसा देखा और उन ऋषि-मुनियों में मतभेद नहीं था, क्योंकि मतभेद तो सिर्फ विचारवानों में ही होता है-अंतरज्ञानियों में नहीं।
इस जगत को अविद्या कहा गया है। अविद्या को ही वेदांती माया कहते हैं और माया को ही गीता में अपरा कहा गया है। इसे ही प्रकृति और सृष्‍टि कहते हैं। इस प्रकृति का स्थूल और तरल रूप ही जड़ और जल है। प्रकृति के सूक्ष्म रूप भी हैं- जैसे वायु, अग्नि और आकाश।

वेदांत के अनुसार जड़ और चेतन दो तत्व होते हैं। इसे ही गीता में अपरा और परा कहा गया है। इसे ही सांख्य योगी प्रकृति और पुरुष कहते हैं, यही जगत और आत्मा कहलाता है। दार्शनिक इन दो तत्वों को भिन्न-भिन्न नाम से परिभाषित करते हैं और इसी के अनेक भेद करते हैं।

वेद इस ब्रह्मांड को पंच कोषों वाला जानकर इसकी महिमा का वर्णन करते हैं। गीता इन्हीं पंच कोशों को आठ भागों में विभक्त कर इसकी महिमा का वर्णन करती है। स्मृति में वेदों की स्पष्ट व्याख्‍या है। पुराणों में वेदों की बातों को मिथकीय ‍विस्तार मिला। इस मिथकीय विस्तार से कहीं-कहीं भ्रम की उत्पत्ति होती है। पुराणकार वेदव्यास कहते हैं कि वेदों को ही प्रमाण मानना चाहिए।
सृष्टि को ब्रह्मांड कहा जाता है ब्रह्मांड अर्थात ब्रह्म के प्रभाव से उत्पन्न अंडाकार सृष्टि। पुराणों में ब्रह्मा को ब्रह्म (ईश्वर) का पुत्र माना जाता है इसीलिए उनके अनुसार ब्रह्मा द्वारा ही इस ब्रह्मांड की रचना मानी जाती है। समूचे ब्रह्मांड या सृष्टि में उत्पत्ति, पालन और प्रलय होता रहता है। ब्रह्मांड में इस वक्त भी कहीं न कहीं सृष्टि और प्रलय चल ही रहा है।

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