न्याय के देवता शनि यानी दण्डाधिकारी माने जाते हैं। न्याय का नाता धर्म पालन से है। क्योंकि अच्छे-बुरे कर्म न्याय का आधार होते हैं। मान्यता है कि शनि भी जगत के प्राणियों पर पाप-पुण्य कर्मों के आधार पर ही कृपा भी करते हैं व दण्डित भी। शनि का यह न्याय शास्त्रों के मुताबिक शनि की ढैय्या, साढ़े साती या महादशा के दौरान सौभाग्य, सफलता या नाकामी और दरिद्रता के रूप में दिखाई देता है।
दरअसल, शनि भक्ति जीवन में अच्छे कार्यों व सोच को अपनाने का सबक ही देती है। सद्कर्म व अच्छे विचार ही धर्म पालन के लिए अहम है। इसलिए शास्त्रों में शनि की प्रसन्नता के लिए धार्मिक कर्मकांड के अलावा बोल, व्यवहार और कर्म से जुड़ी ऐसी बातें भी कारगर बताई गई है, जिनको शनिदेव की बिना पाठ-पूजा के व्यावहारिक जीवन में अपनाना भी आसान है। यहां तक कि नास्तिक यानी ईश्वर भक्ति से दूर रहने वाले इंसान पर भी इन बातों के कारण शनि कृपा कर सफल व सौभाग्यशाली बना देते हैं।
सेवा – मान्यता है कि शनिदेव जरावस्था या बुढ़ापे के स्वामी है। इसलिए हमेशा माता-पिता या बड़ों का सम्मान व सेवा करने वाले पर शनि की अपार कृपा होती है। इसके विपरीत वृद्ध माता-पिता या बुजुर्गों को दु:खी या उपेक्षित करने वाला शनि के कोप से बहुत पीड़ा पाता है।
दान – शनि भक्ति में दान का महत्व बताया गया है। दान उदार बनाकर घमण्ड को भी दूर रखता है। इसलिए यथाशक्ति शनि से जुड़ी सामग्रियों या किसी भी रूप में दान धर्म का पालन करें। अहं व विकारों से मुक्त इंसान से शनि प्रसन्न होते हैं।
परोपकार – परोपकार धर्म का अहम अंग है। दूसरों की पर दया खासतौर पर गरीब, कमजोर को अन्न, धन या वस्त्र दान या शारीरिक रोग व पीड़ा को दूर करने में सहायता शनि की अपार कृपा देने वाला होता है।
क्रोध का त्याग – शनि का स्वभाव क्रूर माना गया है। किंतु वह बुराईयों को दण्डित करने के लिए है। इसलिए शनि कृपा पाने व कोप से बचने के लिए क्रोध जैसे विकार से दूर रहना ही उचित माना गया है।
सहिष्णुता या सहनशीलता- शनि का स्वरूप विकराल है। वहीं शनि को कसैले या कड़वे पदार्थ जैसे सरसों का तेल आदि भी प्रिय माना गया है। किंतु इसके पीछे भी सूत्र यही है कि कटुता चाहे वह वचन या व्यवहार की हो, से दूर रहें व दूसरों के ऐसे ही बोल व बर्ताव को द्वेषता में न बदलें यानी सहनशील बनें।
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