आज कल के आधुनिक युग में एवं समय के अभाव के चलते सभी लोग पूजा विधान को भूलते जा रहें है या मनो जैसे एक औपचारिकता सी रह गई हो, कई लोग तो स्वयं इतनी हड़बड़ी में या जल्दबाजी में पूजा करते हो मानो जैसे उन्हें केवल इतना करने से हे प्रभु प्राप्ति हो जाएगी. जैसा की हम सभी जानते है की हमारे शाश्त्रो में हर चीज़ का एक विधान बताया गया है इसमें पूजा का भी एक विधान है जिमें यह बताया गया है की क्या करें न करें तोह आज हम जानेंगे की पूजा में या पूजा स्थल में क्या करें या क्या रखें या न रखें.
- घर में दो शिवलिंग की पूजा ना करें तथा पूजा स्थान पर तीन गणेश नहीं रखें।
- शालिग्राम की मूर्ति जितनी छोटी हो वह ज्यादा फलदायक है।
- कुशा पवित्री के अभाव में स्वर्ण की अंगूठी धारण करके भी देव कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।
- मंगल कार्यो में कुमकुम का तिलक प्रशस्त माना जाता हैं। पूजा में टूटे हुए अक्षत के टूकड़े नहीं चढ़ाना चाहिए।
- पानी, दूध, दही, घी आदि में अंगुली नही डालना चाहिए। इन्हें लोटा, चम्मच आदि से लेना चाहिए क्योंकि नख स्पर्श से वस्तु अपवित्र हो जाती है अतः यह वस्तुएँ देव पूजा के योग्य नहीं रहती हैं।
- तांबे के बरतन में दूध, दही या पंचामृत आदि नहीं डालना चाहिए क्योंकि वह मदिरा समान हो जाते हैं।
- आचमन तीन बार करने का विधान हैं। इससे त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु-महेश प्रसन्न होते हैं। दाहिने कान का स्पर्श करने पर भी आचमन के तुल्य माना जाता है।
- कुशा के अग्रभाग से देवताओं पर जल नहीं छिड़के।
- देवताओं को अंगूठे से नहीं साफ़ न करें।
- चकले पर से चंदन कभी नहीं लगावें। उसे छोटी कटोरी या बांयी हथेली पर रखकर लगावें।
- पुष्पों को बाल्टी, लोटा, जल में डालकर फिर निकालकर नहीं चढ़ाना चाहिए।
- भगवान के चरणों की चार बार, नाभि की दो बार, मुख की एक बार या तीन बार आरती उतारकर समस्त अंगों की सात बार आरती उतारें।
- भगवान की आरती समयानुसार जो घंटा, नगारा, झांझर, थाली, घड़ावल, शंख इत्यादि बजते हैं उनकी ध्वनि से आसपास के वायुमण्डल के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं।
- लोहे के पात्र से भगवान को नैवेद्य अपर्ण नहीं करें।
- हवन में अग्नि प्रज्वलित होने पर ही आहुति दें। समिधा अंगुठे से अधिक मोटी नहीं होनी चाहिए तथा दस अंगुल लम्बी होनी चाहिए। छाल रहित या कीड़े लगी हुई समिधा यज्ञ-कार्य में वर्जित हैं। पंखे आदि से कभी हवन की अग्नि प्रज्वलित नहीं करें।
- मेरूहीन माला या मेरू का लंघन करके माला नहीं जपनी चाहिए। माला, रूद्राक्ष, तुलसी एवं चंदन की उत्तम मानी गई हैं। माला को अनामिका (तीसरी अंगुली) पर रखकर मध्यमा (दूसरी अंगुली) से चलाना चाहिए।
- जप करते समय सिर पर हाथ या वस्त्र नहीं रखें। तिलक कराते समय सिर पर हाथ या वस्त्र रखना चाहिए। माला का पूजन करके ही जप करना चाहिए। ब्राह्मण को या द्विजाती को स्नान करके तिलक अवश्य लगाना चाहिए।
- जप करते हुए जल में स्थित व्यक्ति, दौड़ते हुए, शमशान से लौटते हुए व्यक्ति को नमस्कार करना वर्जित हैं। बिना नमस्कार किए आशीर्वाद देना वर्जित हैं।
- एक हाथ से प्रणाम नही करना चाहिए। सोए हुए व्यक्ति का चरण स्पर्श नहीं करना चाहिए।
- बड़ों को प्रणाम करते समय उनके दाहिने पैर पर दाहिने हाथ से और उनके बांये पैर को बांये हाथ से छूकर प्रणाम करें।
- जप करते समय जीभ या होंठ को नहीं हिलाना चाहिए। इसे उपांशु जप कहते हैं। इसका फल सौगुणा फलदायक होता हैं।
- जप करते समय दाहिने हाथ को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए। जप के बाद आसन के नीचे की भूमि को स्पर्श कर नेत्रों से लगाना चाहिए।
- संक्रान्ति, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, रविवार और सन्ध्या के समय तुलसी तोड़ना निषिद्ध हैं।
- दीपक से दीपक को नही जलाना चाहिए।
- यज्ञ, श्राद्ध आदि में काले तिल का प्रयोग करना चाहिए, सफेद तिल का नहीं।
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