शर्मा ब्राह्मणों का एक उपनाम है। दक्षिण भारत और असम में यह सरमा है। वक्त बहुत कुछ बदल देता है, लेकिन उपनाम व्यक्ति बदल नहीं पाता, इसीलिए बहुत से भारतीय ईसाइयों में शर्मा लगता है। जम्मू-कश्मीर के कुछ मुस्लिम भी शर्मा लगाते हैं। कुछ जैन और बौद्धों में भी शर्मा लगाया जाता है। वर्तमान में भारत में शर्मा उपनाम और भी कई अन्य समाज के लोग लगाने लगे हैं। शर्मा उत्तर और पूर्वात्तर भारतीय लोग हैं जिनकी बसाहट उत्तर-पश्चिम भारत से नेपाल तक रही है।
ब्राह्मणों की आम पहचान शर्मा उपनाम से होती है जो शर्मन् का रूपांतर है। वाशि आप्टे कोश के अनुसार ब्राह्मणों के नामों के साथ प्रायः शर्मन् अथवा देव, क्षत्रियों के नाम के साथ वर्मन् अथवा त्रातृ, वैश्यों के साथ गुप्त, भूति अथवा दत्त और शूद्रों के साथ दास शब्द संयुक्त होता था। – शर्मा देवश्च विप्रस्य, वर्मा त्राता च भूभुजः, भूतिर्दत्तश्च वैश्यस्य दासः शूद्रश्य कारयेत्। शर्मन् का अर्थ है आनंद, कल्याण, शांति, आश्रय, आधार आदि। ब्राह्मणों के स्वस्ति वचनों में कल्याण की भावना निहित है यह भाव भी इसमें निहित था।
शर्मा और नग्न कौन है-सामान्यतः ४ वर्णो की उपाधि शर्मा, वर्मा, गुप्त और दास होती है। सभी उच्च पदाधिकारी तथा नेता भी लोक सेवक हैं, अतः इनकी भी उपाधि दास होती है। जो लोग सरकारी सेवा में थे उनकी उपाधि दास होती थी। सन्यास के बाद भगवान् के सेवक बनने वाले भी दास कहलाते हैं। सभी पशुओं के शरीर की रक्षा के लिये चर्म का आवरण रहता है। चर्म से ही शर्म हुआ है। जिसके पास शास्त्र रूपी आवरण (चर्म = शर्म) है, वह शर्मा है। शास्त्र और नियम जानने वाला ही अपनी भूल के लिये लज्जित होता है। अतः लज्जा को भी फारसी में शर्म कहते हैं। यद्यपि उपाधि रूप में शर्मा ब्राह्मणों के लिये ही प्रयुक्त होता है, लेकिन विष्णु पुराण में कहा है कि कोई भी शास्त्र हीन व्यक्ति शर्म आवरण नहीं होने से नग्न है। इसे लोकभाषा में नंगा (भोजपुरी आदि में लंगा) कहते हैं। केवल सामाजिक नियम नहीं, बल्कि अपनी और समाज की रक्षा के लिये भी शास्त्र का आवरण जरूरी है। नग्न अर्थात् ज्ञान हीन असंयमित व्यक्ति शीघ्र नष्ट हो जाता है। यही वास्तविक कवच है। समाज सुरक्षित और सुचारु रूप से चलने के लिये जरूरी है कि सभी वर्ण अपने कर्तव्य का पालन करें। सभी व्यक्ति चारो आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास का पालन करें तो समाज में पूर्णता आती है और वह प्रगति करता है। ऋग्वेद तथा ऐतरेय ब्राह्मण में वाक् (ज्ञान) को शर्म कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण में इस शब्द की व्युत्पत्ति चर्म से कही गयी है। विष्णु पुराण, खण्ड ३, अध्याय १७ में इसका विस्तार से वर्णन है जिसके कुछ उद्धरण नीचे दिये गये हैं।
चर्म वा एतत् कृष्णस्य (मृगस्य) तन्मानुषं शर्म देवत्रा। (शतपथ ब्राह्मण, ३/२/१/८)
वाग् वै शर्म। अग्निर्वै शर्माण्यन्नाद्यानि यच्छति। (ऐतरेय ब्राह्मण २/४०-४१)
ऋक् (३/१३/४)-स नः शर्माणि वीतये ऽग्निर्यच्छतु शन्तमा।
विष्णु पुराण (३/१७)-श्री मैत्रेय उवाच-
को नग्नः किं समाचारो नग्न संज्ञा नरो लभेत्। नग्न स्वरूपमिच्छामि यथावत् कथितं त्वया॥४॥
श्री पराशर उवाच-ऋग्यजुस्सामसंज्ञेयं त्रयी वर्णावृतिर्द्विज। एतामुज्झति यो मोहात् स नग्न पातकी द्विजः॥५॥
त्रयी समस्त वर्णानां द्विज संवरणं यतः। नग्नो भवत्युज्झितायामतस्तस्यां न संशयः॥६॥
हताश्च तेऽसुरा देवैः सन्मार्गपरिपन्थिनः॥३४॥
स्वधर्म कवचं तेषामभुद्यत् प्रथमं द्विज। तेन रक्षाभवत् पूर्वं नेशुर्नष्टे च तत्र ते॥३५॥
तत्र मैत्रेय तन्मार्ग वर्तिनो येऽभवञ्जनाः। नग्नास्ते तैर्यतस्त्यक्तं त्रयी संवरणं तथा॥३६॥
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थस्तथाश्रमी। परिव्राड् वा चतुर्थोऽत्र पञ्चमो नोपपद्यते॥३७॥
यस्तु सन्त्यज्य गार्हस्थ्यं वानप्रस्थो न जायते। परिव्राट् सापि मैत्रेय स नग्नः पापकृन्नरः॥३८॥
ब्राह्मणाद्यास्तु ये वर्णास्स्वधर्मादन्यतो मुखाः। यान्ति ते नग्न संज्ञां तु हीनकर्मस्ववस्थिताः॥४८॥
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