भारतवासी जहां कहीं भी गए वे रामायण को भी साथ ले गए। उनके विश्वास का वृक्ष, रामायण स्थानीय परिवेश में भी फलता-फूलता रहा। प्राकृतिक कारणों से उनकी आकृति में संशोधन और परिवर्तन अवश्य हुआ किन्तु उन्होंने शिला खंडों पर खोद कर जो उनका इतिहास छोड़ा था, वह आज भी उनकी कहानी कह रहा है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार, रामायण का पाठ करने वाला पुण्य फल पाता है और पापों से कोसों दूर रहता है। बदलते परिवेश में संपूर्ण रामायण का पाठ करना हर किसी के लिए संभव नहीं है। यदि प्रतिदिन एक मंत्र का जाप कर लिया जाए तो संपूर्ण रामायण पढ़ने का पुण्य फल प्राप्त कर सकते हैं। इस चमत्कारी मंत्र को एक श्लोकी रामायण के नाम से भी संबंधित किया जाता है।
आदौ रामतपोवनादिगमनं हत्वा मृगं कांचनं
वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसंभाषणम् ।
वालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनं
पश्चाद्रावणकुंभकर्णहननमेतद्धि रामायणम् ॥
॥ एकश्लोकि रामायणं सम्पूर्णम् ॥
भावार्थ : एक बार श्री राम वनवास में गए। वहां उन्होंने स्वर्ण मृग का पीछा किया और उसका वध किया। इसी दौरान उनकी पत्नी वैदेही यानि सीता जी का रावण द्वारा हरण किया गया। उनकी रक्षा करते हुए पक्षिराज जटायु ने अपने प्राण गवाएं। श्रीराम की मित्रता सुग्रीव से हुई। उन्होंने उसके दुष्ट भाई बालि का वध किया। समुद्र पर पुल बनाकर पार किया।लंकापुरी का दहन हुआ। इसके पश्चात् रावण और कुम्भकरण का वध हुआ. यही पूरी रामायण की संक्षिप्त कहानी है।
रामायण में गृहस्थ जीवन, आदर्श पारिवारिक जीवन, आदर्श पतिव्रत धर्म, आदर्श स्त्री-पुरुष, बालक, वृद्ध और युवा सबके लिए समान उपयोगी एवं सर्वोपरि शिक्षा को प्रस्तुत किया गया है।
रामायण धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधन तथा परम अमृत रूप है अत: सदा भक्ति भाव से उसका श्रवण करना चाहिए।
अच्छे संस्कारों की स्त्रियां मनुष्य को अनंत और अनादि गहरे मोह से पार कर देती हैं। शास्त्र, गुरु और पुत्र आदि में से कोई भी संसार से पार उतारने में इतना सहायक नहीं है जितनी स्नेह से भरी हुई अच्छे कुलों की स्त्रियां अपने पतियों को पार उतारने में सहायक होती हैं। संस्कारवान स्त्रियां अपने पति की सखा, बंधु, सुहृद, सेवक, गुरु, मित्र, धन, सुख, शास्त्र, मंदिर और दास आदि सभी कुछ होती हैं।
गुरुजनों की सेवा करने से स्वयं, धन-धान्य, विद्या और सुख कुछ भी प्राप्त होना दुर्लभ नहीं है।
पिता की हुई भूल को जो पुत्र सुधार देता है वही उत्तम संतान है। जो ऐसा नहीं करता वह श्रेष्ठ संतान नहीं है। माता और पिता की आज्ञा का पालन करना पुत्र का धर्म है। पुत्र ‘पुत्’ नामक नरक से पिता का उद्धार करता है, जो पितरों की सब ओर से रक्षा करता है।
पिता की सेवा करने से जो कल्याण प्राप्त होता है, वैसा कल्याण न सत्य से न दान से और न पर्याप्त दक्षिणा से प्राप्त होता है। माता-पिता और गुरु के समान अन्य कोई देवता इस पृथ्वी पर नहीं है क्योंकि इनकी सेवा करने से धर्म, अर्थ, काम और तीनों लोकों की प्राप्ति होती है।’’
उत्साह ही बलवान होता है। उत्साह से बढ़कर दूसरा कोई बल नहीं है। जो व्यक्ति उत्साही है, उसके लिए संसार में कुछ भी प्राप्त करना कठिन नहीं।
पापी, घृणित और क्रूर लोग ऐश्वर्य को पाकर भी उसी प्रकार सदैव नहीं रह पाते, जैसे खोखली जड़ वाले पेड़ अधिक समय तक खड़े नहीं रहते हैं।
जिस प्रकार नदी का जल प्रवाह पीछे नहीं लौटता, उसी प्रकार ढलती हुई अवस्था भी पुन: नहीं लौटती। अत: अपनी आत्मा को कल्याण के साधन-भूत धर्म में लगाना ही अभिष्ट है। मनुष्य जो भी शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसी के फलस्वरूप वह सुख या दुख भोगता है।
जो प्राणियों को संकट में डालने वाला, क्रूर और पापकर्म में रत है, वह यदि तीनों लोकों का ईश्वर हो तो भी अधिक समय तक टिक नहीं सकता। उसे सब लोग सामने आए हुए सर्प की भांति मार डालते हैं।
शत्रु और विषैले सांपों के साथ रहना पड़े तो रह लें किन्तु शत्रु की सेवा करने वाले मित्र के साथ कभी न रहें। मित्र अमीर हो या गरीब, सुखी हो या दुखी, निर्दोष हो या सदोष वह मित्र के लिए सबसे बड़ा सहायक होता है।
ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिसके करने से कोई मान-सम्मान न हो और जो धर्म विरुद्ध हो। मन की वास्तविक स्थिति एवं स्वरूप का जिन्हें ज्ञान हो गया है, उनका चित्त शांत, सनातन ब्रह्म के रूप में अनुभूत होता है।
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