भगवद्गीता के प्रथम श्लोक में धृतराष्ट्र संजय से प्रश्न कर रहे हैं, ‘हे, संजय! धर्मक्षेत्र रूपी कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे और पांडु पुत्रों ने क्या किया? संपूर्ण भगवद्गीता में धृतराष्ट्र ने यही एक श्लोक कहा है और उसमें भी अपने पुत्रों के विषय में जानने की जिज्ञासा है। यह जो मेरा का भाव है यही मोह है। विशुद्ध रूप में मोह प्रेम है, जिस कारण जीवन सरस होता है।
अपने स्वजनों को समस्त सुख-सुविधाएं मुहैया कराने के उद्देश्य से ही कर्म किया जाता है। बिना मोह के जीवन प्रयोजनविहीन हो जाएगा, मन शुष्क हो जाएगा और भावों में अकाल पड़ जाएगा। मोह को माया भी कहा गया है और यह संसार माया के आवरण में ही ढंका हुआ है। मनुष्य, पशु, पक्षी और देवता कोई भी मोह से मुक्त नहीं है। चिड़िया अपने नवजात बच्चों के लिए दाना चुगकर लाती है। बारिश में खुद भींगती है, पर उन पर अपने पंखों की छाया कर देती है। श्रीराम ने भी जब लंका पार कर दुष्टों का अंत किया तब उनमें सीता के प्रति मोह की भावना थी। फिर क्यों मोह तिरस्कृत है? क्यों अध्यात्म की यात्रा पर निकले पथिक को बार-बार मोह त्यागने का उपदेश दिया जाता है? क्यों कबीर ‘माया मुई न मन मुआ’ कहते हैं?
सही अनुपात में मोह प्रेरणा देता है। आपको कुछ बड़ा करने का साहस देता है। जीवन में जब मुश्किल क्षण आते हैं उस समय आपको अपने से अधिक अपने प्रियजनों की चिंता होती है और उनकी सुरक्षा के लिए आप कोई भी प्रयास करने से नहीं चूकते हैं। फिर, धृतराष्ट्र कैसे गलत हो गए? वे भी तो अपने पुत्रों के विषय में प्रश्न कर रहे हैं? धृतराष्ट्र का मोह विकारग्रस्त है, ऐसा मोह विवेकशून्य हो जाता है। ऐसी दशा में आपके प्राण मोह के विषय-वस्तु में अटक जाते हैं और आप धर्म और नीति के विरुद्ध भी उनकी रक्षा के लिए चले जाते हैं।
कैसे बन्धन मुक्त हुआ जाए? सीधे शब्दों में मोक्ष का अर्थ मुक्ति है और मुक्त आपको बंधनों से होना है। बंधनमुक्त होने की इच्छा से ही राजा जनक ने ऋषि अष्टावक्र से प्रश्न किया और मोक्ष को सुगम करने के लिए अष्टावक्र ने उत्तर दिया,
‘यदि देहं पृथकृत्य चित्ति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शान्तः बन्धमुक्तो भविष्यसि।।’
बंधनमुक्त होने के लिए देह और देही में थोड़ी सी दूरी आवश्यक है।
भावनाओं के झंझावात में सही-गलत देख नहीं पाते हैं और हमें लगता है कि जो मेरा है वह हमेशा सही है, जैसा धृतराष्ट्र ने समझा। व्यापक रूप में मोह आपको समाज के लिए उपयोगी बनाता है क्योंकि आप मैं, मेरा से ऊपर उठकर समाज के लिए कार्य करते हैं। तटस्थता का भाव जीवन में आपको मुक्त कर देता है। मोह और निर्मोह के बीच समन्वय की स्थिति ही मुक्ति है।
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