धर्म का मूल-आचार अहिंसा है ! उस अहिंसा का पालन अनेकान्त दृष्टी के बिना संभव नहीं है ! क्यूंकि धर्म(जैन) दृष्टी से हिंसा न करते हुए भी मनुष्य हिंसक हो सकता है ! और हिंसा करते हुए भी हिंसक नहीं होता ! अत: जैनधर्म में हिंसा और अहिंसा व्यक्ति के भावों पर अवलम्बित है क्रिया पर नहीं ! जो सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करता है उसका आचरण अहिंसा है ! लोक में यह पंक्त्तियाँ वैसे भी अत्यंत प्रसिद्ध है “सावधानी हटी – दुर्घटना घटी “! सावधानी – अहिंसा है ! दुर्घटना – हिंसा है ! दुसरें का दुःख मेरा दुःख नहीं बना और मेरा सुख परपीड़ित के काम नहीं आया तो समझना अभी धर्म से हम कोसों दूर हैं ! किसी के गिरने पर अगर हमें खुशी होती हो या उसका मजाक बनाने का मन करें तो समझना कि मैं भी मिथ्यादृष्टि हूँ ! धर्म का प्रारंभ सम्यकदर्शन है
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