1. अन्य समस्त कार्य छोड़कर जो सर्वदा एकमात्र भगवान का ही अवलंबन करता है, एकमात्र भगवान की ही सेवा – पूजा में तन – मन – धन से निरंतर नियुक्त रहता है, वह भक्त नमस्कार योग्य है ।
2. जो भगवान में समस्त लोक और समस्त लोकों में भगवान का दर्शन करता है, जो सर्वत्र समानबुद्धि रखता है और सर्वभूतों में प्रेम रखता है, वह भक्त नमस्कार – योग्य है ।
3. जिसको अपने और परायेका भेद नहीं है, जिसको इच्छा, द्वेष और अभिमान नहीं है तथा जो सर्वदा पवित्र एवं भगवान में दत्त – चित्त है वह भक्त नमस्कार – योग्य है ।
4. जिसका मन – संपत्ति – विपत्ति में भगवान को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाता, जो सर्वदा सत्यवादी एवं सदाचार – परायण है, वहीं भक्त नमस्कार – योग्य है ।
5. जो प्रपंच – विमुख है, विचारयुक्त है, एकांतसेवी है तथा भगवत्परायण है, वहीं भक्त नमस्कार योग्य है ।
6. जो भगवान के सर्वत्र दर्शन करता है, जिसको संसार से अभय प्राप्त है, जो अन्य प्राणियों को अभय प्रदान करता है, जो संसार से उदासीन है तथा जो आश्रम – धर्म में कुशल है, वहीं भक्त नमस्कार योग्य है ।
7. जिसको प्रेम का ही अवलंबन है, जिसने मत – मतान्तर को उल्लंघन किया है और जिसका हृदय प्रेममय है, वहीं भक्त नमस्कार – योग्य है ।
8. जो सर्वदा चातक की नाईं एकनिष्ठ है, सर्वदा लक्ष्मण की नाईं स्वतंत्रता से रहित है, सर्वदा द्वंद्वों अर्थात् शीतोष्ण और राग द्वेष से परे है एवं संतुष्ट चित्त है, वहीं भक्त नमस्कार योग्य है ।
9. जो भगवान के अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता और न किसी को चाहता है, जिसका मन स्थिर है और जो संयमी है, वहीं भक्त नमस्कार योग्य है ।
10. जो भगवान को इसी शरीर से प्राप्त कर लेता है, जिसका भगवान के चिंतन में ही समय व्यतीत होता है, वहीं भक्त नमस्कार योग्य है ।
11. जिसके भगवान को, जो कि एकमात्र सत्य वस्तु है, आत्म समर्पण किया है, वहीं नमस्कार योग्य है ।
12. ऐसे भक्तराज के दर्शन, प्रणाम और सेवा करने वाले का जीवन धन्य है । ऐसे भक्त की कृपा से प्रेम की वृद्धि और कामना से रहितता होती है । भक्त हृदय ही भगवान का विलास – स्थान है । भक्त के हृदय से भगवान का स्वरूप और भगवान की महिमा प्रकाशित होती है । ऐसे भक्त त्यागकर और किसका संग करना चाहिए ? भक्त, संपत्ति, सिद्धि अथवा कैवल्यमुक्ति नहीं चाहता, वह सर्वस्व त्याग देता है और संपूर्ण रूप से भगवान ने विलीन होता है । अर्थात् आत्म – विसर्जन करता है ।
भगवान ने आत्मा की आहुति प्रदान करना सर्वश्रेष्ठ यज्ञ है, वहीं परम पुरुषार्थ है । जो जिस पदार्थ को चाहता है, वह उसी को प्राप्त करता है । जो कुछ भी नहीं चाहता वह श्रीभगवान को प्राप्त करता है । भक्त का धन केवल श्रीकृष्ण के चरणकमल हैं और वह केवल भगवान की कृपा से ही प्राप्त होता है ।
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