अध्यात्म

शिष्य होने का मतलब…

Written by Bhakti Pravah

शिष्य का क्या मतलब है? जिसे शिक्षा दी जा रही हो, वह हुआ शिष्य। हालांकि यह कोई बहुत अच्छी श्रेणी नहीं है, क्योंकि उपदेश देने वाले ने तो दे दिया, पर यदि तुमने उसे धारण ही नहीं किया तो तुम शिष्य नहीं, बल्कि चेला कहलाओगे। शिष्य वह है, जो अपने जीवन को उत्कर्ष की, विकास की ओर ले जाए। जो मोह और अज्ञान से अपने आपको बाहर निकालना चाहता है, ऐसे शिष्य को गुरु जब उपदेश देते हैं तो उससे उसे लाभ होता है।

जिसके जीवन में ऊपर उठने की तमन्ना ही नहीं है और न ही वह अपने अज्ञान को दूर करना चाहता है, वह गुरु के पास बड़े गलत कारणों से टिका रह सकता है। यह तो चेला होने का लक्षण है। चेला गलत कारणों से गुरु के पास जाता है और शिष्य सही कारणों से। शिष्य की पहली सीढ़ी यह है कि वह अपने जीवन में श्रेष्ठता, ज्ञान, प्रेम, भक्ति और सात्विकता को बढ़ाना चाहता है।

जब शिक्षा मिली, ज्ञान मिला तो इस ज्ञान की प्राप्ति से बर्हिमुख होने की दौड़ बंद हो गई और अंतर्मुखता बढ़ती गई। यह है शिष्य का दूसरा लक्षण। शिष्यत्व की बात तभी पूरी होती है, जब उपदेश सुनने के बाद अंतर्मुखता बढ़ती है और बाहर की दौड़ बंद हो जाती है। यदि बहिर्मुखता वैसी की वैसी बनी रहे तो वह चेला ही रहेगा। ऐसे चेले का कभी कल्याण नहीं होगा। गुरु तो शिष्य का ही कल्याण कर सकता है। बड़े से बड़ा, पहुंचा हुआ गुरु भी किसी चेले का कल्याण नहीं कर सकता।

शिष्य होने के लिए सुने हुए ज्ञान का चिंतन कर, एकांत में बैठ कर ध्यान-साधना करनी चाहिए। जिसकी बाहरी वृत्तियां शांत हो चुकी हैं, वही शिष्य है।

शिष्य का तीसरा लक्षण है, जो इस ज्ञान के मार्ग पर बहना चाहता है, बरसना चाहता है, फैलना चाहता है, विस्तृत होना चाहता है। जो पूरी तरह से शिष्य हो जाता है, सही मायने में गुरु भी वही हो पाता है। जो शिष्य नहीं हो पाया, वह गुरु कैसे होगा? जो गुरु हो जाता है, वह तो अभी भी अपने आपको शिष्य ही जानता है। शिष्यभाव में रहेगा तो नम्रता रहेगी, शिष्यभाव मंे रहेगा तो प्रेम रहेगा, शिष्यभाव में रहेगा तो अहंकार नहीं होगा। वह भी सीखता है, सीखे हुए को पचा भी लेता है और पचा कर दूसरों में उसे बांट भी देता है।

ऐसे सद्गुरु की सेवा करने का अवसर भी योग्यता के अनुसार मिलता है। जब तक वह योग्यता नहीं आती, तब तक अवसर भी नहीं मिलता। आपका प्रेमास्पद, आपका सद्गुरु, आपका परमात्मा आपके सामने बैठा हो, खाता हो, पीता हो, सोता हो, बात करता हो, शिष्य के लिए उसकी हर अदा एक कमाल का दृश्य होता है।

गुरु माने ज्ञान। जब तक ज्ञान नहीं हुआ, तब तक शरीरधारी गुरु भी चाहिए, लेकिन फिर अंतत: ज्ञान ही गुरु है। कोई शरीर, कोई मनुष्य किसी का गुरु नहीं हो सकता। मैं सब मनुष्यों की बात कर रही हूं, जो हो चुके हैं, और जो आज मौजूद हैं, उन सबकी। कोई मनुष्य किसी का गुरु नहीं हो सकता। गुरु सिर्फ ज्ञान है। पर उस अवस्था तक पहुंचने के लिए बाहरी गुरु की आवश्यकता है। बाहरी गुरु के सान्निध्य में तुम्हें सही शिष्य होकर साधना कर, अंत में इसी स्थिति तक पहुंचना है, जहां सिर्फ ज्ञान तुम्हारा गुरु रह जाता है, कोई मनुष्य नहीं।

शिष्यत्व का अर्थ क्या है? समर्पण। आपको लगता है कि समर्पण करना आसान है? शिष्य का अर्थ है- अपनी खुदी को मिटा देना। शिष्य का अर्थ है- गुरु के हर प्रयोग में अपने आपको ढाल देना, अगर उसमें जीवन का त्याग भी करना पड़े तो वह करे, क्योंकि इस शरीर का कोई मोल नहीं आत्मबोध के सामने। शिष्यत्व बहुत मुश्किल है।

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