युद्ध स्थल में अर्जुन के श्री कृषण से कहे इन वाक्यों से ऐसा भ्रम हो सकता है की अर्जुन के मन में अहिंसा की भावना उत्पन्न हुई और भगवन श्री कृषण ने अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित किया किन्तु इस श्लोक का अर्थ और अर्जुन के मन के भाव को समझना अति आवशक है नहीं तो सम्पूर्ण गीता का अर्थ व्यर्थ हो जाये गा ! यदि अर्जुन के मन में अहिंसा की भावना उत्पन्न हो गयी होती तो गीता इस श्लोक से बाद समाप्त हो गयी होती श्री कृषण को सम्पूर्ण गीता न कहनी पड़ती,अर्जुन अपने सगे सम्भन्दिओ को देख हिंसा के ही दुसरे पहेलु ममत्व की भावना से ग्रसित हो गया था, ममत्व का भाव मेरे का भाव, मै का भाव ,शूक्षम तल पर मै ,मेरे,मेरा का भाव हिंसा वाला ही है क्यूंकि इस भाव से व्यक्ति अधिकार सिद्ध करता है ,जैसे ही व्यक्ति कहता है मेरा तत शन वैह किसी को पराया भी करता है किसी के पराये होने का भाव भी उसके मन में गहराई में कहीं छिपा होता है !अहिंसक व्यक्ति के मन में न ही ममत्व और न ही हिंसा का भाव होता है वैह इस द्वन्द से परे हो गया होता है ,तब अहिंसा फलित होती है ,अर्जुन अभी भारी द्वन्द में है,गीता में अर्जुन ,हमारा और श्री कृषण परम पिता परमेश्वर के प्रतीक हैं ! जय श्री कृष्णा
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