भाग्य और पुरुषार्थ जिन्दगी के दो छोर हैं। जिसका एक सिरा वर्तमान में है तो दूसरा हमारे जीवन के सुदूर व्यापी अतीत में अपना विस्तार लिए हुए है। यह सच है कि भाग्य का दायरा बड़ा है, जबकि वर्तमान के पाँवों के नीचे तो केवल दो पग धरती है। भाग्य के कोष में संचित कर्मों की विपुल पूँजी है, संस्कारों की अकूत राशि है, कर्म बीजों, प्रवृत्तियों एवं प्रारब्ध का अतुलनीय भण्डार है। जबकि पुरुषार्थ के पास अपना कहने के लिए केवल एक पल है। जो अभी अपना होते हुए भी अगले ही पल भाग्य के कोष में जा गिरेगा।
भाग्य के इस व्यापक आकार को देखकर ही सामान्य जन सहम जाते हैं। अरे यही क्यों? सामान्य जनों की कौन कहे कभी-कभी तो विज्ञ, विशेषज्ञ और वरिष्ठ जन भी भाग्य के बलशाली होने की गवाही देते हैं। बुद्धि के सभी तर्क, ज्योतिष की समस्त गणनाएँ, ग्रह-नक्षत्रों का समूचा दल-बल इसी के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है।
ये सभी कहते हैं कि भाग्य अपने अनुरूप शुभ या अशुभ परिस्थितियों का निर्माण करता है। और ये परिस्थितियां अपने आँचल में सभी व्यक्तियों-वस्तुओं एवं संयोगों-दुर्योगों को लपेट लेती है। ये सब अपना पृथक् अस्तित्त्व खोकर केवल भाग्य की छाया बनकर उसी की भाषा बोलने लग जाते हैं।
लेकिन इतने पर भी पुरुषार्थ की महिमा कम नहीं होती। आत्मज्ञानी, तत्त्वदर्शी, अध्यात्मवेत्ता सामान्य जनों के द्वारा कही-सुनी और बोली जाने वाली उपरोक्त सभी बातों को एक सीमा तक ही स्वीकारते हैं।
क्योंकि वे जानते हैं कि पुरुषार्थ आत्मा की चैतन्य शक्ति है, जबकि भाग्य केवल जड़ कर्मों का समुदाय। और जड़ कर्मों का यह आकार कितना ही बड़ा क्यों न हो चेतना की नन्हीं चिंगारी इस पर भारी पड़ती है।
जिस तरह अग्नि की नन्हीं सी चिंगारी फूस के बड़े से बड़े ढेर को जलाकर राख कर देती है। जिस तरह छोटे से दिखने वाले सूर्य मण्डल के उदय होते ही तीनों लोकों का अंधेरा भाग जाता है।
ठीक उसी तरह पुरुषार्थ का एक पल भी कई जन्मों के भाग्य पर भारी पड़ता है।
पुरुषार्थ की प्रक्रिया यदि निरन्तर अनवरत एवं अविराम जारी रहे तो पुराने भाग्य के मिटने व मनचाहे नए भाग्य के बनने में देर नहीं।
पुरुषार्थ का प्रचण्ड पवन आत्मा पर छाए भाग्य के सभी आवरणों को छिन्न-भिन्न कर देता है। तब ऐसे संकल्प निष्ठ पुरुषार्थी की आत्मशक्ति से प्रत्येक असम्भव सम्भव और साकार होता है। तभी तो ऋषि वाणी कहती है- मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।
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