अध्यात्म

पहचाने अपने कर्म , विकर्म और अकर्म को

Written by Bhakti Pravah

मनुष्य बहुत विचित्र प्राणी है । मनुष्य अपनी सुबिधा और अपने स्वार्थ के अनुसार अपने कर्म को तय करता है ।

कर्म –
मन , वचन और स्थूल शरीर से किए गए कार्य को हम कर्म कहते है । इस कर्म मे किसी का बुरा न हो तथा कोई अहित न हो और न कोई हिंसा न हो । ऐसे कर्म मे मन का भाव और इंद्रियों का कार्य पवित्र होना चाहिए । फल की इच्छा से पवित्र भाव से विधि पूर्वक किए उत्तम कार्य को हम कर्म कहते है ।

विकर्म –
मन , वचन और स्थूल शरीर से किए गए हिंसात्मक कार्य , चोरी , झूठे प्रवचन से लोगो को ठगना , पाखंड से लोगो से धन को ठगना , बुरी नीयत से किए गए कार्य , झूठ और पाप के फल की इच्छा रखते हुए कार्य को हम विकर्म कहते है । आजकल कलयुग के संत सिर्फ इस प्रकार के धंधे मे लिप्त होकर सिर्फ विकर्म ही विकर्म कर रहे है और अपनी झोली , झोला और बोरिया और आश्रमो के तयखाने भर रहे है । धर्म के नाम धंधा कर रहे है ।

अकर्म –
मन , वचन और शरीर से हर चीज़ को त्याग कर प्रभु को समर्पण कर देने को ही अकर्म कहते है । जिसमे कोई स्वार्थ न हो , किसी फल की इच्छा न! हो , कोई पाखंड न हो , एकांत मे रहता हो , प्रभू की भक्ति तल्लीन रहता हो । जो सांसरिक भोगो से दूर रहकर भगवान की भक्ति मे लीन रहता हो उसी को अकर्म कहते है ।
ग्रहस्थ जीवन जीने वाले लोग अपने कर्म को अकर्म मे बदल सकते है । यह कर्म का सिधान्त ही हमे पुनर्जन्म मे भाग्य का निर्माता बन जाता है । जितने अच्छे और सात्विक कर्म इस जीवन मे करोगे तो निश्चित ही अगला जन्म आपको महान और ऐश्वरसाली मिलेगा

commentbelow

Leave a Comment