अध्यात्म

दान एक सामाजिक परंपरा

Written by Bhakti Pravah

वास्तव में दान एक सामाजिक व्यवस्था है। समाज में इससे संतुलन बनता है। दान के कारण ही कई निर्धन परिवार के लोगों का भरण पोषण हो पाता है। भारतीय संस्कृति में कहा गया है कि हर जीव में परमात्मा का वास है। अत: कोई व्यक्ति भूखा न रहे। दानधर्म से ही यह संस्कृति अटूट है।

हिंदू धर्म शास्त्रों में कुछ काम हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य बताए गए हैं। उनमें से अपने सामर्थ्य के अनुसार दान करना भी एक महत्वपूर्ण काम है। धर्म ग्रंथों के अनुसार हर व्यक्ति को अपनी कमाई का न्यूनतम दस प्रतिशत भाग जरूरतमंदों को दान करना चाहिए।
दान का मतलब है देना। जो वस्तु स्वयं की इच्छा से देकर वापस न ली जाए उसे हम दान कहते हैं। दान में अन्न, जल, धन-धान्य, शिक्षा, गाय, बैल आदि दिए जाते हैं। परंपरा में दान को कर्तव्य और धर्म माना जाता है।

दान का विधान हर किसी के लिए नहीं है। जो धन-धान्य से संपन्न हैं, वे ही दान देने के अधिकारी हैं। जो लोग निर्धन हैं और बड़ी कठिनाई से अपने परिवार की आजीविका चलाते हैं उनके लिए दान देना जरूरी नहीं है। ऐसा शास्त्रों में विधान है। कहते हैं कि कोई व्यक्ति अपने माता-पिता, पत्नी व बच्चों का पेट काटकर दान देता है तो उसे पुण्य नहीं बल्कि पाप मिलता है। खास बात यह कि दान सुपात्र को ही दें, कुपात्र को दिया दान व्यर्थ जाता है। ऐसा कहा गया है कि न्यायपूर्वक यानी ईमानदारी से अर्जित किए धन का दसवां भाग दान करना चाहिए। यह एक कर्तव्य है। इससे ईश्वर प्रसन्न होते हैं।

दान के बाद दक्षिणा – दान की महिमा को भारतीय सभ्यता में बड़े ही धार्मिक रूप में स्वीकार किया गया है। यदि आपके समर्पण का आदर करते हुए किसी ने आपके द्वारा दिया गया दान स्वीकार कर लिया तो आपको उसे धन्यवाद तो देना ही चाहिए। दान के बाद दी जाने वाली दक्षिणा, दान की स्वीकृति का धन्यवाद है। इसीलिए दान के बाद दी जाने वाली दक्षिणा का विशेष महत्व बताया गया है। इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है कि दान देने वाले व्यक्ति की इच्छाओं का दान लेने वाले व्यक्ति ने आदर किया है। इसीलिए वह धन्यवाद और कृतज्ञता ज्ञापित करने का पात्र भी है।

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