गीता ज्ञान

कृष्ण जब बार—बार यह कहते हैं कि

Written by Bhakti Pravah

कृष्ण जब बार—बार यह कहते हैं कि मैं यह हूं मैं यह हूं मैं यह हूं तो बहुत—से पढ़ने वालों को गीता में ऐसा लगता है कि कृष्ण बड़े अहंकारी हैं। यह आदमी अजीब है। यह क्यों कहे चला जाता है कि सभी चांद—सूरज की रोशनी मैं हूं! कि सभी रसों में छिपा हुआ रस मैं हूं! कि सभी प्राणों में धड़कता प्राण मैं हूं!

आज के जमाने में तो गीता जैसी किताब लिखनी बड़ी मुश्किल हो जाए; कहनी भी मुश्किल हो जाए। फौरन पत्थर पड़ जाएं। क्योंकि लोग कहें कि दिमाग खराब है आपका! सभी कुछ आप हैं?

और अगर हिंदुओं को गीता पढ़ते वक्त यह खयाल नहीं आता, तो बफरों के कारण। उनको लगता है, कृष्ण भगवान हैं, इसलिए ठीक है। लेकिन मुसलमान जब गीता पढ़ता है, तो उसे फौरन खयाल आता है कि यह आदमी ठीक नहीं मालूम पड़ता। जैन जब पढ़ता है, तो उसे फौरन समझ में आता है कि यह आदमी अहंकारी है।

हिंदू सोच लेता है कि भगवान हैं, ठीक है। बाकी अगर वह भी विचार करेगा, तो उसको भी लगेगा कि यह बात क्या है? कृष्ण क्यों इतना जोर देते हैं कि मैं ही सब कुछ हूं?

और आपको अगर ऐसा लगे कि कृष्ण अहंकारी हैं, इतना जोर अपने मैं पर देते हैं, तो समझना कि यह चोट आपके अहंकार को लग रही है। यह आपका अहंकार क्रुद्ध हो रहा है।

कृष्ण का क्या प्रयोजन होगा? कृष्ण क्यों इतना जोर दे रहे हैं स्वयं पर? कृष्ण के जोर का कारण आप समझ लें।

कृष्ण का जोर स्वयं पर नहीं है; कृष्ण का जोर अर्जुन मिट जाए, इस पर है। पर इसके लिए एक ही उपाय है कि अर्जुन का केंद्र अर्जुन के बाहर हट जाए। अर्जुन का केंद्र अर्जुन के भीतर न हो, कहीं बाहर हो जाए। कृष्ण की यह सारी चेष्टा इसीलिए है कि अर्जुन देख पाए कि उसके भीतर जो मैं की आवाज है, वह व्यर्थ है; और वह संपूर्ण के केंद्र पर समर्पित हो जाए।

अर्जुन ने कहीं भी यह सवाल नहीं उठाया कि आप इतने अहंकार की बातें क्यों कर रहे हैं! यह भी जरा आश्चर्यजनक है। क्योंकि अर्जुन बुद्धिमान है; जैसा सोफिस्टिकेटेड होना चाहिए, उतना है। सुशिक्षित है, सुसंस्कारी है। उस समय के प्रतिभावान व्यक्तियों में एक है। मेधावी है। नहीं तो कृष्ण की मित्रता का कोई अर्थ भी न था। और कृष्ण जिसके सारथी बनने को राजी हो गए हैं, वह कोई साधारण गंवार नहीं है। पर अर्जुन एक बार भी नहीं कहता कि आप क्यों अपने अहंकार की घोषणा किए जा रहे हैं!

Leave a Comment