गीता ज्ञान

कृष्ण कह रहे हैं, व्यक्ति की भावदशा क्या है

Written by Bhakti Pravah

कृष्ण कह रहे हैं, व्यक्ति की भावदशा क्या है? और वे एक सूत्र दे रहे हैं कि अगर लाभ और हानि बराबर है, अगर सुख और दुख समान हैं, अगर जय और पराजय में कोई अंतर नहीं, तो तू जो भी करेगा, उसमें कोई पाप नहीं है। क्या करेगा, इसकी वे कोई शर्त ही नहीं रखते। कहते हैं, फिर तू जो भी करेगा, उसमें कोई पाप नहीं है।

विचारणीय है, और गहरी है बात। क्योंकि कृष्ण यह कह रहे हैं कि दूसरे को चोट पहुंचाने की बात तभी तक होती है, जब तक लाभ और हानि में अंतर होता है। जिसे लाभ और हानि में अंतर ही नहीं है.. शर्त बड़ी मुश्किल है। क्योंकि लाभ—हानि में अंतर न हो, यह बड़ी गहरी से गहरी उपलब्धि है।

ऐसा व्यक्ति, जिसे लाभ और हानि में अंतर नहीं है, क्या ऐसा कोई भी कृत्य कर सकता है, जिसे हम पाप कहते हैं! जिसे जय और पराजय समान हो गई हों, जिसे असफलता और सफलता खेल हो गए हों, जो दोनों को एक—सा स्वागत, स्वीकार देता हो, जिसकी दोनों के प्रति समान उपेक्षा या समान स्वीकृति हो, क्या ऐसा व्यक्ति गलत कर सकता है?

कृष्ण का जोर व्यक्ति पर है, कृत्य पर नहीं। और व्यक्ति के पीछे जो शर्त है, वह बहुत बड़ी है। वह शर्त यह है कि उसे द्वंद्व समान दिखाई पड़ने लगे, उसे प्रकाश और अंधेरा समान दिखाई पड़ने लगे। यह तो बड़ी ही गहरी समाधि की अवस्था में संभव है।

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