गीता ज्ञान

कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, क्षत्रिय होकर

Written by Bhakti Pravah

कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, क्षत्रिय होकर ही तेरा स्वर्ग है। उससे विचलित होकर तेरा कोई सुख नहीं है। तेरी जो निजता है, तेरी जो इडिविजुअलिटी है, जो तेरे भीतर का गुणधर्म है, जो तू भीतर से बीज लिए बैठा है, जो तू हो सकता है, वही होकर ही—अन्यथा नहीं—तू स्वर्ग को उपलब्ध होगा, तू सुख को उपलब्ध होगा, आनंद को अनुभव कर सकता है।

जीवन की प्रफुल्लता स्वयं के भीतर जो भी छिपा है, उसके पूरी तरह प्रकट हो जाने में है। जीवन का बड़े से बड़ा दुख, जीवन का बड़े से बड़ा नर्क एक ही है कि व्यक्ति वह न हो पाए, जो होने के लिए पैदा हुआ है; व्यक्ति वह न हो पाए, जो हो सकता था और अन्य मार्गों पर भटक जाए। स्वधर्म से भटक जाने के अतिरिक्त और कोई नर्क नहीं है। और स्वधर्म को उपलब्ध हो जाने के अतिरिक्त और कोई स्वर्ग नहीं है।

मनुष्य के मन में नर्क उसी क्षण उत्पन्न हो जाता है, जिस क्षण उसके चित्त में दो बातें खड़ी हो जाती हैं। टु बी, व्हाट वन इज नाट एंड नाट टु बी, व्हाट वन इज—वह होने की इच्छा, जो कि मैं नहीं हूं; और वह नहीं होने की इच्छा, जो कि मैं हूं—इन दोनों के बीच में ही नर्क उपस्थित हो जाता है। सार्त्र भी कृष्ण से राजी होगा।

अर्जुन ऐसे ही नर्क में खड़ा हो गया है। जो है, वह न होने की इच्छा पैदा हुई है उसे, जो नहीं है, वह होने की इच्छा पैदा हुई है। वह एक ऐसे असंभव तनाव में खड़ा हो गया है। जिसमें प्रवेश तो बहुत आसान, लेकिनलौटना बहुत मुश्‍किल है।

जिंदगी में किसी भी चीज से लौटना बहुत मुश्किल है। जाना बहुत आसान है, लौटना सदा मुश्किल है। और स्वयं के धर्म से जाना बहुत आसान है, क्योंकि स्वधर्म से विपरीत जाना सदा उतार है। वहा हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता, सिर्फ हम अपने को छोड़ दें, तो हम उतर जाते हैं। स्वधर्म को पाना चढ़ाव है। उतर जाना बहुत आसान है, चढ़ना बहुत कठिन हो जाता है।

Leave a Comment