प्रत्येक ईश्वरवादी ईश्वर को सत् मानता है अर्थात् ईस्वर का अस्तित्व उसके लिए सदा बना रहता है । प्राणियों की तरह ईश्वर मरा नहीं करता । इसी तरह ईश्वर को वह ‘प्रेमानंद’ रूप मानता है, अर्थात् प्राणियों की तरह ईश्वर में सुख – दुख नहीं होता । इसी तरह ईश्वर को चित्स्वरूप भी माना जाता है । चित्त का अर्थ होता है ज्ञान अर्थात् ईश्वर पूर्ण ज्ञानमय होता है । ईश्वर नित्य ज्ञानरूप होता है । इसमें कभी अज्ञता नहीं होती । इसी ज्ञान को वेद कहा जाता है । ज्ञान में सदा शब्द का अनुवेध रहता है । अत: वेद के शब्द, अर्थ और संबंध – ये तीनों ही नित्य होते हैं । इस तरह वेद ईश्वर के स्वरूप भूत हो गया । अत: भगवान विष्णु को हम वेद – स्वरूप कहते हैं । यहां विष्णु को आयुर्वेद – स्वरूप कहा गया है, वह इसलिए कि आयुर्वेद वेद का ही उपांग है । इसी से आयुर्वेद की महत्ता प्रकट हो जाती है, अर्थात् आयुर्वेद भगवान श्रीविष्णु का रूप ही है ।
ऊपर भगवान विष्णु को हम सत्, चित् और आनंद कह आएं हैं, अर्थात् सत् – चित् – आनंद ही भगवान होता है । आनंद का ही उल्लसित रूप होता है प्रेम । इसलिए वेद ने भगवान विष्णु को प्रेमानंद रूप कहा है । प्रेम का स्वभाव होता है कि वह अपने प्रेमास्पद के साथ कोई – न – कोई खेल खेलता ही रहता है । अत: भगवान यह खेल हम प्रेमास्पदों के साथ खेलते ही रहते हैं । जाग्रत – अवस्था और स्वप्नावस्था में हम भगवान के साथ प्रेम का खेल खेलते हुए थक जाते हैं, तब वह महान चिकित्सक हमें संज्ञा – हरण का ज्ञान दे सुषुप्ति अवस्था में पहुंचा देता है । इस अवस्था में न तो हमें प्राकृतिक सुख की प्रतीति होती है और न प्राकृतिक दु:ख का थपेड़ा ही सहना पड़ता है । भगवान अपने आनंदरूप में हम को लीन कर देते हैं । इनके आनंदांशको पाकर हम चिर प्रफुल्लित हो उठते हैं और अच्छी तरह संज्ञा के लौट आने पर अनुभव करते हैं कि मैं सुखपूर्वक सोया ।
लीलाओं में प्रेमलीला सबसे उत्तम होती है । सच पूधिए तो हमारे साथ प्रेम की लीला करने के लिए ही भगवान लीलास्थली बनाते हैं । हमें नाम और रूप देकर हमारे साथ प्रेम की ही लीला करते हैं । किंतु हममें से कुछ लोग भटककर भगवान के साथ प्रेम न करके उनकी बहिरंगासक्ति के फेर में पकड़कर भगवान को ठुकराकर किसी और से प्रेम करने लगते हैं । जैसे शिशुपाल और कंस भी हमारी तरह भगवान के अंश थे । परंतु वे भगवान से प्रेम न कर प्रकृति से प्रेम और भगवान से ईर्ष्या – द्वेष करने लगे । यह भगवान के हम प्रेमास्पदों की गलती है, किंतु भगवान इतने दयालु और प्रेमातुर हैं वि वे कंस और शिशुपाल के भी स्थूल शरीर एवं सूक्ष्म शरीर के साथ भी अपनी ओर से प्रेमलीला करते ही रहते हैं और फिर ऐसे प्रतिकूल लोगों को भी संज्ञा – हरण की सुईं लगाकर उन्हें दु:ख आदि के थपेड़ों से हुई थकान को मिटाने के लिए सुषुप्ति अवस्था में – अपने में लीन कर लेते हैं ।
आयुर्वेद और पुराण – ये दोनों शाश्वत वेद के अर्थ हैं, अत: दोनों ही शाश्वत हैं । इसी अभिप्राय से चरक के कहा है – ‘ब्रह्मणा हि यथाप्रोक्तमायुर्वेदं प्रजापति:’ इस तरह ब्रह्मा द्वारा स्मरण (उच्चारण) करने के बाद उनके शब्दों में ग्रथित ग्रंथ जो पुराण और आयुर्वेद हैं – सब – के – सब ब्रह्मा द्वारा श्रुत हैं, स्मृत नहीं । ब्रह्मा से ही हमें दोनों एक – एक लाख श्लोकवाले ग्रंथ प्राप्त हुए हैं और ब्रह्मा के द्वारा ही हमें वेद प्राप्त हुआ है ।
फिर भी दोनों में भेद इसलिए है कि स्मृत ग्रंथ के शब्द नित्य नहीं हैं, क्योंकि ब्रह्मा द्वारा निर्मित नहीं हैं, अत: अपौरुषेय हैं और वेद में ब्रह्मा का किसी प्रकार का कृतित्व नहीं है, न वेद का उच्चारण उनका कृत है, न अर्थ कृत है, न शब्द कृत है । इस प्रकार वेद ब्रह्मरूप ठहरता है और वेदांग आयुर्वेद भी भगवान श्रीविष्णु का स्वरूप ही है ।
पाश्चात्य विपश्चितों ने वेदों में श्रम किया है, किंतु वे वेद के अपौरुषेय – स्वरूप को समझ नहीं सके । शाश्वत शब्द और नित्य शब्द में अंतर समझने लगते हैं और समझते हैं कि मनुष्य में जब बुद्धि का विकास हुआ तब आयुर्वेद बना । सच पूछा जाएं तो शास्त्र ने शाश्वत और नित्य को पर्यायवाची माना है ।
भगवान विष्णु इस प्रकार वेद या आयुर्वेद स्वरूप ठहरते हैं ।
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