मनुष्य के भीतर जो भी सुंदर है, जैसे- प्रेम, करुणा और संवेदनशीलता, उसका गहरा सम्बंध चंद्रमा से है। चंद्रमा सृजनात्मकता को जागृत करता है। चांद जब अपनी पूर्णता में प्रकट होता है, पूर्णिमा होती है, तब तो मनुष्यों के भीतर बहुत कुछ घटित होता है।
यह बात तो प्रत्येक पूर्णिमा के सम्बंध में है, लेकिन इन पूर्णिमाओं में शरद पूर्णिमा एक ऐसी पूर्णिमा है, जो सर्वाधिक प्रभावकारी है। इसका कारण है कि यह ग्रीष्म की उत्तप्तता के बाद आती है और मनुष्यों के हृदय और भावनाओं में एक नई तरलता पैदा करती है- यह एक संक्रमण काल की पूर्णिमा है। मनुष्य की चेतना में जब पहली बार तरलता की स्फूरणा आती है तो उस समय कवि-हृदय लोग अस्तित्व और जीवन के साथ प्रेम से भर जाते हैं। नर्तक नृत्य करता है, कवि गीत गाता है। बौद्धिक लेखक अपनी कल्पना को उन्मुक्त होता देखता है।
इनके अतिरिक्त कुछ अलग किस्म के लोग भी होते हैं, जो पूर्णिमा के साथ और अधिक गहरे हो जाते हैं। वे मन के पार के जगत के लोग होते हैं। उन्हें हम ऋषि अथवा रहस्यदर्शी पुकारते हैं। वे पूर्णिमा के चंद्र के साथ ध्यान लगाते हैं, वे चंद्रमा से बरसने वाले सोमरस को पीते हैं, आत्मसात करते हैं। इसलिए पूर्व के सभी रहस्यदर्शियों ने पूर्णिमा का ध्यान-समाधि के लिए पूर्ण उपयोग करने का आग्रह किया है।
ओशो का सुझाव है कि अगली बार जब पूर्णिमा आने वाली हो तो तीन दिन पहले से चंद्र-ध्यान शुरू कर दें। बाहर खुले में चले जाएं, चंद्रमा को देखें और देखते-देखते झूमना शुरू कर दें। ऐसा भाव करें कि आपने अपना सब कुछ चंद्रमा पर छोड़ दिया है। चंद्रमा के साथ मदमस्त हो जाएं। चांद को देखें, अपने को ढीला छोड़ दें और चांद को कहें कि आप राजी हैं, उसे जो करना है, करे। फिर जो भी होता है, होने दें। यदि आपको नाचने या गाने का भाव हो तो नाचें-गाएं। लेकिन सब कुछ ऐसा होना चाहिए, जैसे कि आप करने वाले नहीं हैं- आप कर्ता नहीं हैं- यह सब हो रहा है। आप एक बांसुरी है, जिसे कोई और बजा रहा है।
शरद पूर्णिमा के तीन दिन पहले से इसे शुरू कर दें। और जैसे-जैसे चंद्रमा पूरा होता जाएगा, आप और-और ऊर्जा अनुभव करेंगे, आप और-और मदहोश अनुभव करेंगे। उस समय नृत्य और मदहोशी से ही आप इतना हल्का महसूस करेंगे, जितना कि पहले आपने कभी नहीं किया होगा।
यह हो सकता है कि आपके भीतर रहस्य के द्वार खुल जाएं, परमात्मा की हल्की-सी पदचाप सुनाई दे। परमात्मा की अनुभूति किसी व्यक्ति विशेष की भांति नहीं— बल्कि एक ऊर्जा-पुंज की अनुभूति— रूखी-सूखी, बौद्धिक और तार्किक नहीं, बल्कि रसभरी, रसमय रूप में होगी।
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