एक समय दैत्यों ने वृत्रासुर की सहायता से समस्त देवताओं को पराजित कर दिया । सभी देवता ब्रह्मा के पास गए और उनको अपनी करुण – कथा सुनाई । ब्रह्मा ने कहा – देवताओं ! त्वष्टाने तुम लोगों का वध करने के लिए इस महात्जस्वी वृत्रासुर को उत्पन्न किया है । यह दैत्य महान् आत्मबल से सम्पन्न तथा समस्त दैत्यों का अधिपति है । महर्षि दधीचि ने शिव जी की आराधना करके ब्रज – सरीखी अस्थियां प्राप्त की हैं । तुम लोग उनसे उनकी अस्थियों की याचना करो और उसके द्वारा वज्र का निर्माण करो । उसी अस्त्र से इस प्रबल दैत्य का वध हो सकता है । जब इंद्रादि देवता दधीचि के पास गए तब वे परोपकार – परायण ऋषि उन्हें देखते ही उनका मन्तव्य समझ गए । उन्होंने अपनी पत्नी सुवर्चा को आश्रम से अन्यत्र भेज दिया । तत्पश्चात भगवान शिव का ध्यान करते हुए उन्होंने देवकार्य के लिए अपने शरीर का त्याग कर दिया । इंद्र ने विश्वकर्मा के द्वारा दधीचि की अस्थियों से वज्र का निर्माण करवाया और उसके द्वारा वृत्रासुर का वध किया ।
इधर दधीचि की पत्नी सुवर्चा जब आश्रम में लौट कर आयीं और देवताओं के कारण अपने पति के तन – त्याग की बात सुनी, तब उन्होंने क्रोधित होकर इंद्रादि समस्त देवताओं को शाप दे दिया ।फिर सती होने के लिए लकड़ियों द्वारा चिता तैयार कीं । उसी समय आकाशवाणी हुईं – देवी ! तुम्हारे उदर में मुनि का तेज विद्यमान है । तुम्हें सती होने का विचार त्याग देना चाहिए । गर्भवती स्त्री को अपना शरीर नहीं जलाना चाहिए । आकाशवाणी सुनकर मुनिपत्नी क्षणभर के लिए विस्मय में पड़ गयीं, परंतु उस सती को तो पति लोक की प्राप्ति ही अभीष्ट थी । उसने पत्थर से अपने उदर को फाड़ डाला । फिर वह गर्भ बाहर निकल आया । वह अपनी अलौकिक प्रभा से तीनों लोकों को उद्भासित कर रहा था । दधीचि के उत्तम तेज से प्रादुर्भूत वह गर्भ रुद्र का अवतार था । मुनिप्रिया सुवार्चने समझ लिया कि यह दिव्य स्वरूप धारी मेरा पुत्र साक्षात् रुद्र है । उसने रुद्रस्वरूप अपने पुत्र की स्तुति की और बोली – तात परमेशान ! तुम इस अश्वत्थ – वृक्ष के सन्निकट रहो । तुम समस्त प्राणियों के लिए सुखदाता होओ और मुझे प्रेमपूर्वक अब पतिलोक में जाने की आज्ञा दो । सुवर्चा ने अपने पुत्र से इस प्रकार कहकर परम समाधि द्वारा पति का अनुगमन किया । तदनन्तर ब्रह्मासहित समस्त देवता वहां आयें और उन्होनें रुद्रावतार उस बालक की स्तुति की । ब्रह्मा जी ने उस बालक का नाम पिप्पलाद रखा ।
बहुत समय तक रुद्रावतार पिप्पलाद ने लोकहित की कामना से उस अश्वत्थ – वृक्ष के नीचे तप किया । उनका विवाह राजा अनरण्य की कन्या पद्मा के साथ हुआ । उन मुनि के पद्मा के द्वारा दस पुत्र हुए । वे सब के सब पिता के समान महात्मा एवं उग्र तपस्वी थे । रुद्रावतार कृपालु पिप्पलाद ने शनैश्चर की पीड़ा को देखकर लोगों को वरदान दिया कि ‘जन्म से लेकर सोलह वर्ष तक की आयु वाले मनुष्यों तथा शिवभक्तों को शनि पीड़ा नहीं पहुंचायेगा । यदि कहीं शनि मेरे वचनों का अनादर करके ऐसा करेगा तो वह भस्म हो जाएगा ।’ इसलिए उस भय से भयभीत होकर ग्रहश्रेष्ठ शनि सोलह वर्ष तक की आयु वाले मनुष्यों और शिवभक्तों को कभी पीड़ा नहीं पहुंचाता है । इस प्रकार महान ऐश्वर्यशाली महामुनि पिप्पलाद ने नाना प्रकार की लीलाएं कीं ।
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