राशि और नक्षत्र दोनों जब एक स्थान पर समाप्त होते हैं तब यह स्थित गण्ड नक्षत्र कहलाती है और इस समापन स्थिति से ही नवीन राशि और नक्षत्र के प्रारम्भ होने के कारण ही यह नक्षत्र मूल संज्ञक नक्षत्र कहलाते हैं।
बच्चे के जन्म काल के समय सत्ताइस नक्षत्रों में से यदि रेवती, अश्विनी, श्लेषा, मघा, ज्येष्ठा अथवा मूल नक्षत्र में से कोई एक नक्षत्र हो तो सामान्य भाषा में वह दिया जाता है कि बच्चा मूलों में जन्मा है। अधिकांशतः लोगों में यह भ्रम भी उत्पन्न कर दिया जाता है कि मूल नक्षत्र में जन्मा हुआ बच्चे पर बहुत भारी रहेगा अथवा माता, पिता, परिजनों आदि के लिए दुर्भाग्य का कारण बनेगा अथवा अरिष्टकारी सिद्ध होगा।
राशि और नक्षत्र के एक स्थल पर उदगम और समागम के आधार पर नक्षत्रों की इस प्रकार कुल 6 स्थितियां बनती हैं अर्थात् तीन नक्षत्र गण्ड और तीन मूल संज्ञक। कर्क राशि तथा आश्लेषा नक्षत्र साथ-साथ समाप्त होते हैं तब यहॉ से मघा राशि का समापन और सिंह राशि का उदय होता है। इसी लिए इस संयोग को अश्लेषा गण संज्ञक और मघा मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं।
वृश्चिक राशि और ज्येष्ठा नक्षत्र एक साथ समाप्त होते हैं। यहॉ से ही मूल और धनु राशि का प्रारंभ होता है। इसलिए इस स्थिति को ज्येष्ठा गण्ड और ‘मूल’ मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं। मीन राशि और रेवती नक्षत्र एक साथ समाप्त होते हैं। यहॉ से मेष राशि व अश्विनि नक्षत्र प्ररांभ होते हैं। इसलिए इस स्थिति को रेवती गण्ड और अश्विनि मूल नक्षत्र कहते हैं।
उक्त तीन गण्ड नक्षत्र अश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती का स्वामी ग्रह बुध और मघा, मूल तथा अश्विनि तीन मूल नक्षत्रों का स्वामी केतु है। जन्म काल से नवें अथवा सत्ताइसवें दिन जब इन नक्षत्रों की पुनः आवृति होती है तब मूल और गण्ड नक्षत्रों के निमित्त शांति पाठों का विधान प्रायः चलन में है।
ज्योतिष के महाग्रंथों शतपथ ब्राह्मण और तैत्तिरीय ब्राह्मण में मूल नक्षत्रों के विषय में तथा इनके वेदोक्त मंत्रों द्वारा उपचार के विषय में विस्तार से वर्णन मिलता है। यदि जातक महाग्रंथों को ध्यान से टटोलें तो वहॉ यह भी स्पष्ट मिलता है उक्त छः मूल नक्षत्र सदैव अनिष्ट कारी नहीं होते। इनका अनेक स्थितियों में स्वतः ही अरिष्ट का परिहार हो जाता है। यह बात भी अवश्य ध्यान में रखें कि मूल नक्षत्र हर दशा में अरिष्ट कारक नहीं सिद्ध होते। इसलिए मूल नक्षत्र निर्णय से पूर्व हर प्रकार से यह सुनिश्चत अवश्य कर लेने में बौद्धिकता है कि वास्तव में मूल नक्षत्र अरिष्टकारी है अथवा नहीं। अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि दुर्भाग्यपूर्ण ऐसी स्थितियॉ मात्र 30 प्रतिशत ही संभावित होती हैं। लगभग 70 प्रतिशत दोषों में इनका स्वतः ही परिहार हो जाता है।
जन्म यदि रेवती नक्षत्र के चौथे चरण में अथवा अश्विनि के पहले चरण में, श्लेषा के चौथे, मघा के पहले, ज्येष्ठा के चौथे अथवा मूल नक्षत्र के पहले चरण में हुआ है तो ही गण्ड मूल संज्ञक नक्षत्र उस व्यक्ति पर बनता है अन्य उक्त नक्षत्रों के चरणों में होने से नहीं।
जन्म के समय पूर्वी क्षितिज पर उदय हो रही राशि अर्थात् लग्न भी मूल नक्षत्रों के शुभाशुभ की ओर संकेत देते हैं। यदि वृष, सिंह, वृश्चिक अथवा कुंभ लग्न में जन्म हुआ हो तो मूल नक्षत्रों का दुष्प्रभाव नहीं लगता। देखा गया है कि इन लग्नों में हुआ जन्म भाग्यशाली ही सिद्ध होता है।
दिन और रात्रि काल के समयों का भी मूल नक्षत्रों के शुभाशुभ पर! असर पड़ता है। विशेषकर कन्या का जन्म यदि दिन में और लड़के का रात्रि काल में हुआ है तब भी मूल नक्षत्रों का दुष्प्रभाव स्वतः ही नगण्य हो जाता है।
सप्ताह के दिनों का भी मूल के शुभाशुभ का प्रभाव होता है। शनिवार तीक्षण अथवा दारुण संज्ञक और मंगलवार उग्र अथवा क्रूर संज्ञक कहे गये हैं। इसलिए इन वारों में पड़ने वाले मूल या गण्ड नक्षत्रों का प्रभाव-दुष्प्रभाव अन्य दिनों की तुलना में पड़ने वाले वारों से अधिक कष्टकारी होता है।
नक्षत्रों के तीन मुखों अद्योमुखी, त्रियक मुखी और उर्घ्वमुखी गुणों के अधार पर भी मूल के शुभाशुभ की गणना की जाती है। रेवती नक्षत्र उर्घ्वमुखी होने के कारण सौम्य गण्ड संज्ञक कहे जाते हैं। परंतु अन्य मूल, अश्लेषा व मघा तथा ज्येष्ठा व अश्विनि क्रमशः अद्योमुखी और त्रियक मुखी होने के कारण तुलनात्मक रुप से अधिक अनिष्टकारी सिद्ध होते हैं।
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