भगवान के भजन-कीर्तन और नित्य प्रार्थना का महत्व
शास्त्रों में लिखा है कि:- “भजनस्य लक्षणं रसनम्”
अर्थात- अंतरात्मा का रस जिसमें उभरे, उसका नाम है।
भजन यानी ह्रदय में जो आनंद वस्तु, व्यक्ति या भोग-सामग्री के बिना भी आता है, वहीं भजन का रस है।
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है कि:- “जो साधक भगवान का विश्वास पाने के लिए भजन करता है, प्रभु अपनी अहैतुकी कृपा से उसे अपना विश्वास प्रदान करके उसके जीवन को सफल बना देते हैं।”
पद्मपुराण उत्तराखंड में भगवान ने देवर्षि नारद को उपदेश देते हुए कहा है:-
नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद॥
अर्थात:- “हे देवर्षि नारद, मैं न तो वैकुण्ठ में निवास करता हूँ और न ही योगीजनो के ह्रदय में मेरा निवास होता है।
मैं तो उन भक्तों के पास सदैव रहता हूँ जहाँ मेरे भक्त प्रेमाकुल होकर चित्त से मुझको भजते है, और मेरे मधुर नामों का कीर्तन करते है।”
“मुक्ति: ददाति कश्चित न भक्तियोगम्”
अर्थात- स्वयं भगवान भी भजन करने वालों को मुक्ति सुलभ कर देते हैं, पर भक्ति सबको नहीं देते।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवदगीता में कहा है:-
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तवय्: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
(श्रीमद्भगवदगीता ९।३०)
अर्थात:- “चाहे कितना भी बडा पापी क्यों न हो, उसने चाहे सभी पापों का अन्त क्यो न कर डाला हो, वह भी यदि अन्नय होकर- और सभी आश्रय छोड़कर एकमात्र मेरे में ही मन लगाकर मेरा ही स्मरण करता है तो उसे सर्वश्रेष्ठ साधु ही समझना चाहिए।
क्योंकि उसकी भली-भाँति मुझमें ही स्थिति हो चुकी है, अर्थात उसने भली भांति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।
ऐसा व्यक्ति थोडे ही दिनों में धर्मात्मा होकर सुख शांति पाता है।”
मनुष्य ही नहीं देवता भी एक दूसरे की तथा ईश्वर की प्रार्थना करते हैं।
प्रत्येक मानव के ह्रदय की प्रार्थना है:-
“असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मॄत्योर्माअमॄतं गमय”
अर्थात- हे प्रभु, असत्य से सत्य, अन्धकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरता की ओर मेरी गति हो।
इसके द्वारा हम ईश्वर से अपना संबंध जोडकर महान विभूतियों के स्वामी बन सकते हैं और समस्त आधि-व्याधि, कष्ट, कठिनाइयों एवं रोग-शोकों से मुक्ति पा सकते हैं।
यजुर्वेद में परमात्मा से प्रार्थना इस प्रकार की गई है:-
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव, यद् भद्रं तन्न आ सुव. (यजुर्वेद ३०/३)
अर्थात- जगत के उत्पत्ति कर्ता, तुम नियंता नित्य हो, प्राणियों के प्राण ईश्वर, जग अनृत तुम सत्य हो।
दुर्व्यसन, दुःख, रोग, दुर्गुण, दीनता सब शेष हो, स्वस्तिमय शुभ मंगलम, तेरे कृपा सविशेष हो।
हे कृपानिधे, हमारे अंत:करणों को पवित्र कर, शुद्ध, बुद्ध और पवित्र बना।
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है कि:- “ईश्वर असंभव को संभव और संभव को असंभव बनाने में सर्वथा समर्थ हैं, उनमें किसी तरह की असामर्थय नहीं हैं।
वह सब तरह से पूर्ण हैं, उनमें किंचितमात्र भी कमी नहीं है।
जब हमारा संबंध उनसे प्रार्थना के माध्यम से जुड जाएगा, तो उनकी सारी शक्ति हमारे में आ जाएगी।”
श्रद्धा पूर्वक की गई प्रार्थना ही फलवती होती है, अत: भावना जितनी सच्चाी, गहरी और पूर्ण होगी, उतना ही उसका सत्परिणाम भी होगा।
हम यदि आत्मविश्वास से, सच्चे मन, आर्तभाव से भगवान को पुकारें, उनसे प्रार्थना करें, तो तत्काल लाभ मिलता है।
चीरहरण के समय जब द्रौपदी जी सब तरफ से निराश हो गई, किसी ने उसकी प्रार्थना नहीं सुनी, तब उन्होने सच्चे मन से भगवान को पुकारा, तो भगवान कृष्ण ने उनकी लाज बचाई।
प्रह्लाद की रक्षा के लिए भगवान नरसिंह रूप में अवतरित हुए।
अश्वत्थामा के द्वार छोडा गया अस्त्र उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिए आने लगा, तब उत्तरा ने भगवान को पुकारा, तो उन्होंने उसके गर्भ की रक्षा की।
मार्कण्डेय की करूणामय प्रार्थना पर साक्षात शिवजी ने काल से उनकी रक्षा की।
मीराबाई जी, सूरदासजी, तुलसीदासजी, चैतन्य महाप्रभु, नरसी भगत, तुकाराम आदि संत महात्माओं की प्रार्थनाएं भगवान द्वारा स्वीकार की गई और उन सबका कल्याण हुआ।
प्रार्थना से कष्ट, दुख, संताप, पाश्चात्ताप, शारीरिक बीमारियां, चित्त के विकार, मन के पाप दूर हो जाते हैं।
इससे आध्यात्मिक सिद्धियां प्राप्त होती हैं, दैवी शक्तियां बढती हैं, ईश्वर के प्रति विश्वास बढता है, आत्मबल, आत्म विश्वास व आत्मज्ञान में वृद्धि होती है।
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