भगवान् बड़े बड़े पापों का भोग करवाकर भक्त को शुद्ध करके अपनाते हैं। इसलिए भक्त के जन्म के पहले उसका भाग्य (प्रारब्ध) बनाते समय चुन चुन कर बड़े बड़े पाप लिए जाते हैं जिससे वह जल्दी से जल्दी शुद्ब हो जाये।
दूसरा कारण यह भी है कि भक्ति जितनी प्रबलता से दुःख में होती है उतनी प्रबलता से सुख में हो ही नहीं सकती। संसार में ममता छूटना, आशा छूटना, मोह नाश, आदि सब दुखदायी परिस्थिति में ही होते हैं। सुख में तो ममता, आशा, मोह, कामनाएं आदि केवल बढ़ते है और हम भगवान से विमुख ही होते हैं।
जो सच्चे मन से भगवान् में लगना चाहते हैं उनका निज अनुभव है कि सुख भक्ति में बाधक है क्योंकि सुख में भगवान् याद नहीं आते। इसलिए दुःख बड़ी कृपा से मिलते है, क्योंकि दुःख भक्ति में अत्यंत सहायक हैं। माता कुंती ने भगवान् से इसीलिए वरदान में दुःख मांगे थे।
इसीलिए जिनके जीवन में भक्ति होती है, अधिकतर उनके जीवन में दुःख भी होता है।
परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि हम दुखों के डर से भक्ति ही न करें। जो दुःख भक्त झेलता है वह तो उसे वैसे भी झेलने ही पड़ेंगे। आज नहीं तो कल। इस एक जन्म में या अगले कई जन्मों में। भगवान् कोई नए दुःख अपने पास निर्माण करके तो देते नहीं।
बल्कि भक्ति करने से वे बड़े बड़े भयंकर दुःख भी छोटे रूप में सहज ही पार हो जाते हैं। सच्चा भक्त तो दुखों से दुखी होता ही नहीं। हमें भले ही दिखे की उसकी परिस्थिति दुखदायी है, परंतु वास्तविकता में वह मन से निश्चिन्त हो भगवान की गोद में बैठा होता है।
ऐसे में यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि भक्ति करने से दुःख मिलेंगे तो भक्ति ही नहीं करेंगे।
भक्ति तो करनी ही पड़ेगी। इस जन्म में नहीं तो आगे किसी जन्म मे, क्योंकि हमारा वास्तविक लक्ष्य, वास्तविक मांग तो भक्ति ही है। इस जन्म में ही भक्त बन जाएँ तो आगे के जन्मों में आने वाले न जाने कितने ही दुखों कष्टों से बच जायेंगे।
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