जो चीज हिंदू धर्म-ग्रंथों में छिट-पुट दिखाई देती है, उसे गीता ने अनेक रूपों में, अनेक शब्दों में, पुनरुक्ति का दोष स्वीकार करके भी अच्छी तरह स्थापित किया है। वह अद्वितीय उपाय है ‘कर्मफलत्याग।’ इस मध्यबिंदु के चारों ओर गीता की सारी सजावट है।
भक्ति, ज्ञान इत्यादि इसके आसपास तारामंडल-रूप में सज गए हैं। जहां देह है, वहां कर्म तो है ही। उससे कोई मुक्त नहीं है, फिर भी देह को प्रभु का मंदिर बना कर उसके द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है, यह सब धर्मों ने प्रतिपादित किया है। परंतु कर्ममात्र में कुछ दोष तो हैं ही, मुक्ति तो निर्दोष की ही होती है। तब कर्मबंधन में से अर्थात् दोष-स्पर्श में से कैसे छुटकारा हो? इसका जवाब गीता ने निश्चयात्मक शब्दों में दिया है- ‘निष्काम कर्म से, यज्ञार्थ कर्म करके, कर्मफल त्याग करके, सब कर्मों को कृष्णार्पण करके अर्थात् मन, वचन और काया को ईश्वर में होम करके।’ पर निष्कामता, कर्मफल-त्याग कहने भर से नहीं हो जाता। यह केवल बुद्धि का प्रयोग नहीं है।
यह हृदय-मंथन से ही उत्पन्न होता है। यह त्याग-शक्ति पैदा करने के लिए ज्ञान चाहिए। ज्ञान का अतिरेक शुष्क पांडित्य के रूप में न हो जाए, इस ख्याल से गीताकार ने ज्ञान के साथ भक्ति को मिलाया और उसे प्रथम स्थान दिया। बिना भक्ति का ज्ञान हानिकारक है। इसलिए कहा गया- ‘भक्ति करो तो ज्ञान मिल ही जाएगा।’ पर भक्ति तो ‘सिर का सौदा’ है, इसलिए गीताकार ने भक्ति के लक्षण स्थितप्रज्ञ के से बतलाए हैं।
तात्पर्य, गीता की भक्ति बाह्याचारिता नहीं है, अंधश्रद्धा नहीं है। गीता में बताए उपचार का बाह्य चेष्टा या क्रिया के साथ कम-से-कम संबंध है। जो किसी का द्वेष नहीं करता, जो करुणा का भंडार है, जो निरहंकार है, जिसे सुख-दुख शीत-उष्ण समान हैं, जो क्षमाशील है, जिसके निश्चय कभी बदलते नहीं, जिसने मन और बुद्धि ईश्वर को अर्पण कर दिए हैं, जो लोगों का भय नहीं रखता, जो शुभाशुभ का त्याग करने वाला है, जो शत्रु-मित्र पर समभाव रखने वाला है, जिसे मान-अपमान समान है, जिसे स्तुति से खुशी नहीं होती और निंदा से ग्लानि नहीं होती, जो मौनधारी है, जिसे एकांत प्रिय है, जो स्थिरबुद्धि है, वह भक्त है। यह भक्ति आसक्त स्त्री-पुरुषों में संभव नहीं है।
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