प्राचीन दंतकथाओं के अनुसान बहुत पहले एक साहुकार था. उसकी बेटी प्रतिदिन पीपल पर जल चढ़ाने जाती थी. पीपल पर लक्ष्मीजी का वास था. एक दिन लक्ष्मीजी ने साहुकार की बेटी से कहा तुम मेरी सहेली बन जाओ. उसने लक्ष्मीजी से कहा मैं कल अपने पिता से पूछकर उत्तर दूंगी. पिता को जब बेटी ने बताया कि पीपल पर एक स्त्री मुझे अपनी सहेली बनाना चाहती हैं. पिताश्री ने हां कर दी. दूसरे दिन साहूकार की बेटी ने सहेली बनाना स्वीकार कर लिया.
एक दिन लक्ष्मीजी साहुकार की बेटी को अपने घर ले गई. लक्ष्मीजी दे उसे ओढ़ने के लिए शाल-दुशाला दिया तथा सोने की बनी चौकी पर बैठाया. सोने की थाली में उसे अनेक प्रकार के व्यंजन खाने को दिए. जब साहुकार की बेटी खा-पीकर अपने घर को लौटने लगी तो लक्ष्मी जी बोली “तुम मुझे अपने घर कब बुला रही हो”.
पहले सेठ की पुत्री ने आनाकानी की परन्तु फिर तैयार हो गई . घर जाकर वह रूठकर बैठ गई. सेठ बोला तुम लक्ष्मीजी को घर आने का निमंत्रण दे आयी हो और स्वयं उदास बैठी हो. तब उसकी बेटी बोली-“लक्ष्मीजी ने तो मुझे इतना दिया और बहुत सुन्दर भोजन कराया. मैं उन्हें किस प्रकार खिलाऊंगी, हमारे घर में तो उसकी अपेक्षा कुछ भी नहीं हैं.” तब सेठ ने कहा जो अपने से बनेगा वही खातिर कर देंगे.
तू फौरन गोबर मिट्टी से चौका लगाकर सफाई कर दे. चौमुखा दीपक बनाकर लक्ष्मीजी का नाम लेकर बैठ जा. उसी समय एक चील किसी रानी का नौलखा हार उसके पास डाल गई. साहूकार की बेटी ने उस हार को बेचकर सोने की चौकी, सोने का थाल, शाल-दुशाला और अनेक प्रकार के भोजन की तैयारी कर ली.
थोड़ी देर बाद गणेश जी और लक्ष्मी जी उसके घर पर आ गये. साहूकार की बेटी ने बैठने के लिए सोने की चौकी दी.
लक्ष्मी ने बैठने को बहुत मना किया और कहा कि इस पर तो राजा रानी बैठते हैं. तब सेठ की बेटी ने लक्ष्मीजी को जबरदस्ती चौकी पर बैठा दिया. लक्ष्मीजी की उसने बहुत खातिर की इससे लक्ष्मीजी बहुत प्रसन्न हुई और साहूकार बहुत अमीर बन गया. हे लक्ष्मी देवी! जैसे तुम ने साहूकार की बेटी की चौकी स्वीकार की और बहुत सा धन दिया वैसे ही सबको देना.
जय लक्ष्मी माँ
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