अध्यात्म

पार्वती जी का स्वयंवर और महादेवजी साथ उनका विवाह

Written by Bhakti Pravah

ब्रह्माजी कहते हैं — तदनन्तर समयानुसार हिमालय के विशाल पृष्ठ भाग पर पार्वती का स्वयंवर रचाया गया। उस समय वह स्थान सैकड़ों विमानों से घिर रहा था। गिरिराज हिमवान् किसी बात को सोचने-विचारने में बड़े निपुण थे। पुत्री ने देवाधिदेव महादेवजी के साथ जो मन्त्रणा की थी, वह उन्हें ज्ञात हो गयी थी; अतः उन्होंने सोचा, यदि मेरी कन्या सम्पूर्ण लोकों में निवास करने वाले देवता, दानव तथा सिद्धों के महादेव जी का वरण करे तो वही वांछनीय पुण्य होगा। उसी में मेरा अभ्युदय निहित है। यों विचार कर शैलराजने मन-ही-मन महेश्वरका स्मरण करके रत्रोंसे मण्डित प्रदेश में स्वयंवर रचाया। गिरिराजकुमारी के स्वयंवर की घोषणा होते ही सम्पूर्ण लोकों में निवास करनेवाले देवता आदि सुन्दर वेश-भूषा धारण करके वहां आने लगे। हिमवान् की सूचना पाकर मैं भी देवताओं के साथ वहां उपस्थित हुआ। मेरे साथ सिद्ध और भी थे। इन्द्र, विवस्वान्, भग, कृतान्त (यम), वायु, अग्नि, कुबेर, चन्द्रमा, दोनों अश्विनीकुमार तथा अन्यान्य देवता, गन्धर्व, यक्ष, नाग और किन्नर भी मनोहर वेष बनाये वहां आये थे। शचीपति इन्द्र उस समाज में अधिक दर्शनीय जान पड़ते थे। वे अप्रतिहत आज्ञा, बल और ऐश्वर्य के कारण हर्षमग्न हो स्वयंवर की शोभा बढ़ा रहे थे।

जो तीनों लोकों की उत्पत्ति में कारण, जगत् को जन्म देने वाली तथा देवता और असुरों की माता हैं, जो परम बुद्धिमान् आदिपुरुष भगवान शिवकी पत्नी मानी गयी हैं तथा पुराणों में परा प्रकृति बतायी गयी हां, वे ही भगवती सती दक्षपर कुपित हो देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये हिमवान् के घर में अवतीर्ण हुई थीं। वे जिस विमानपर बैठी थीं, उसमें सुवर्ण और रत्न जड़े हुए थे। उनके दोनों ओर वर डुलोये जा रहे थे। वे सभी ऋतुओं में खिलने वाले सुगन्धित पुष्पों की माला हाथ में लिये स्वयंवर-सभा में जाने को प्रस्थित हुई।

इन्द्र आदि देवताओं से स्वयंवर-मण्डप भरा हुआ था। भगवती उमा माला हाथ में लिये देव-समाज में खड़ी थीं। इसी समय देव की परीक्षा लेने के लिये भगवान् शंकर पांच शिखावाले शिशु बनकर सहसा उनकी गोद में आकर सो गये। देवी ने उस बालक को देखा और ध्यान के द्वारा उसके स्वरुप को जानकर बड़े प्रेम के साथ उसे अंक में ले लिया। पार्वती का संकल्प शुद्ध था। वे अपना मनोवांछित पति पा गयीं, अतः भगवान् शंकर को हृदय में रखकर स्वयंवर से लौट पड़ी। देवी के अंक में सोये हुए उस शिशु को देखकर देवता आपस में सलाह करने लगे कि यह कौन है। कुछ पता न लगने पर अत्यन्त मोह में पड़कर वे बहुत कोलाहल करने लगे और वृत्रासुर के मारने वाले इन्द्र ने अपनी एक बांह ऊंचा उठाकर उस बालक पर वज्र का प्रहार करने की चेष्टा की; किंतु शिशुरुपधारी देवाधिदेव शंकर ने उन्हें स्तम्भित कर दिया। अब वे न तो वज्र चला सके और न हिल-डुल सके। तब भग नामवाले बलवान् आदित्य ने एक तेजस्वी शस्त्र चलाना चाहा, किंतु भगवान् ने उनका बल, तेज और योग शक्ति भी व्यर्थ हो गयी। उस समय मैंने परमेश्वर शिव को पहचाना और शीघ्र उठकर उनके चरणों में आदरपूर्वक मस्तक झुकाया। इसके बाद मैंने उनकी स्तुति करते हुए कहा—‘भगवान! आप अजन्में और अजर देवता हैं; आप ही जगत् के स्रष्टा, सर्वव्यापक, परावरस्वरुप, प्रकृति—पुरुष तथा ध्यान करनेयोग्य अविनाशी हैं। अमृत, परमात्मा, ईश्वर, महान् कारण, मेरे भी उत्पादक, प्रकृति के स्रष्टा, सबके रचियता और प्रकृति से भी परे हैं। ये देवी पार्वती भी प्रकृति रूपा हैं, जो सदा ही आपके सृष्टिकार्य में सहायक होती हैं। ये प्रकृति देवी पत्नीरुप में प्रकट होकर जगत् के कारण भूत आप परमेश्वर को प्राप्त हुई हैं। महादेव ! देवी पार्वती के साथ आपको नमस्कार है। देवेश्वर! आपके ही प्रसाद और आदेश से मैंने इन देवता आदि प्रजाओं की सृष्टि की है। ये देवगण आपकी योगमाया से मोहित हो रहे हैं। आप इनपर कृपा कीजिये, जिससे ये पहले जैसे हो जाएं ।’

तदनन्तर मैंने सम्पूर्ण देवताओं से कहा—‘अरे ! तुम सब लोग कितने मूढ़ हो ! इन्हें नहीं जानते ? ये साक्षात् भगवान शंकर हैं। अब शीध्र इन्हीं की शरण में जाओ।’ तब वे सब जड़वत् बने हुए देवता शुद्धचित्त से मन-ही-मन महादेव जी को प्रणाम करने लगे। इससे देवाधिदेव महेश्वरने प्रसन्न होकर उनका शरीर पहले-जैसा कर दिया। तत्पश्चात् देवेश्वर शिव ने परम अद्भुत त्रिनेत्रधारी विग्रह धारण किया। उस समय उनके तेज से तिरस्कृत हो सम्पूर्ण देवताओं ने नेत्र बंद कर लिए । तब उन्होंने देवताओं की दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे वे उनके स्वरूप को देख सकते थे । वह दृष्टि पाकर देवताओं ने परम देवेश्वर भगवान शिव का दर्शन किया । उस समय पार्वती देवी ने अत्यंत प्रसन्न हो समस्त देवताओं के देखते – देखते अपने हाथ की माला भगवान के चरणों में चढ़ा दी । यह देख सब देवता साधु – साधु कहने लगे । फिर उन लोगों ने पृथ्वी पर मस्तक टेककर देवी सहित महादेवी जी को प्रणाम किया । इसके बाद देवताओं सहित मैंने हिवान से कहा – शैलराज ! तुम सबके लिए स्पृहणीय, पूजनीय, वंदननीय तथा महान हो, क्योंकि साक्षात् महादेव जी के साथ तुम्हारा संबंध हो रहा है । यह तुम्हारे लिए महान अभ्युदय की बात है । अब शीघ्र ही कन्या का विवाह करो, विलंभ क्यों करते हो ?

मेरी बात सुनकर हिमवान् ने नमस्कारपूर्वक मुझसे कहा – देव ! मेरे सब प्रकार के अभ्युदय में आप ही कारण हैं । पितामह ! जब जिस विधि से विवाह करना उचित हो, वह सब आप ही कराएं । तब मैंने भगवान शिव से कहा – देव ! अब उमा के साथ विवाह करें । उन्होंने उत्तर दिया – जैसी आपकी इच्छा । फिर तो हम लोगों ने महादेव जी के विवाह के लिए तुरंत ही एक मंडप तैयार किया, जो नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित था । बहुत – से – रत्न – चित्र – विचित्र मणियां, सुवर्ण और मोती आदि द्रव्य स्वयं ही मूर्तिमान् होकर उस मंडप को सजाने लगे । मरकत – मणिका बना हुआ फर्श विचित्र दिखायी देने लगा । सोने के खंभों से उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी । स्फटिकमणि की बनी हुई दीवार चमक रही थी । द्वार पर मोतियों की झालरें लटक रही थीं । चंद्रकांत और सूर्यकांतमणि सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश पाकर पिघल रहे थे । वायु मनोहर सुगंध लेकर भगवान शिव के प्रति अपनी भक्ति का परिचय देती हुई मंद गति से बहने लगी । उसका स्पर्श सुखद जान पड़ता था । चारों समुद्र, इंद्र आदि श्रेष्ठ देवता , देवनदियां, महानदियां, सिद्ध, मुनि, गंधर्व, अप्सराएं, नाग, यक्ष, राक्षस, जलचर,खेचर, किन्नर भी उस विवाहोत्सव में (मूर्तिमान होकर) सम्मिलित हुए थे । तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि समागान करने वाले गंधर्व मनोहर वाजे लेकर उस विशाल मंडप में आए थे । ऋषि कथाएं कहते, तपस्वी वेद पढ़ते तथा मन ही मन प्रसन्न होकर वे पवित्र वैवाहिक मंत्रों का जप करते थे । सम्पूर्ण जगन्माताएं और देवकन्याएं हर्षमग्न हो मंगलगान कर रही थीं । भगवान शंकर का विवाह हो रहा हैं, यह जानकर भांति – भांति की सुगंध और सुख का विस्तार करने वाली छहों ऋतुएं वहां साकार होकर उपस्थित थीं ।

इस प्रकार जब सम्पूर्णभूत वहां एकत्रित हुए और नाना प्रकार से बाजे बजने लगे, उस समय मैं पार्वती को योग्य वस्त्राभूषणों से विभूषित कराकर स्वयं ही मंडप में ले आया । फिर मैंने भगवान शंकर से कहा – देव ! मैं आपका आचार्य बनकर अग्नि में हवन करुंगा । यदि आप मुझे आज्ञा दें तो विधिपूर्वक इस कार्य का अनुष्ठान आरंभ हो । तब देवाधिदेव शंकर ने मुझसे इस प्रकार कहा – ब्रह्मन ! जो भी शास्त्रोक विधान हो, उसे इच्छानुसार कीजिए, मैं आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करुंगा ।

यह सुनकर मेरे मन में बड़ी प्रसन्नता हुई और मैंने तुरंत ही कुश हाथ में लेकर महादेव जी तथा पार्वती देवी के हाथों को योगबंध सो युक्त कर दिया । उस समय वहां अग्निदेव स्वयं ही हाथ जोड़कर उपस्थित हो गए । श्रुतियों के गीत और महामंत्र भी मूर्तिमान् होकर आ गए थे । मैंने शास्त्रीय विधि से अमृतस्वरूप घृत का होम किया और उस दिव्य दंपत्ति के द्वारा अग्नि की प्रदक्षिणा करायी । उसके बाद उनके हाथों को योगबंध से मुक्त किया । योग शक्ति से ही पार्वती और परमेश्वर का उत्तम विवाह सम्पन्न हुआ । ब्राह्मणों ! इस प्रकार मैंने तुम सब लोगों से पार्वती जी के स्वयंवर और महादेव जी के उत्तम विवाह की कथा कह सुनायी । अगली कड़ी में प्रस्तुत करेंगे माता पार्वती और भगवान शंकर से जुड़ी एक और रोचक कथा ।