परमात्मा और संसार जैसी दो चीजें नहीं हैं | परमात्मा का जो हिस्सा द्रश्य हो गया है, वह प्रकृति है | और जो अब भी अद्रश्य है, वह परमात्मा है | कहीं भी ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां प्रकृति ख़त्म होती है और परमात्मा शुरू होता है | बस प्रकृति ही लीन होते होते परमात्मा बन जाती है | परमात्मा ही प्रगट होते होते प्रकृति बन जाता है | अद्वैत का यही अर्थ है |
नीत्से ने कहा हैकि जिस वृक्ष को आकाश की ऊंचाई छूनी हो, तो उसे अपनी जड़ें पाताल की गहराईयों तक पहुंचानी पड़ती हैं | असल में जितनी ऊंचाई, उतनी ही गहराई में जाना पड़ता है | मनुष्य चाहता है शुभ को बचाना, अशुभ को छोड़ना | स्वर्ग को बचाना, नरक को छोड़ना | अन्धकार शून्य प्रकाश ही प्रकाश | अस्तित्व को दो हिस्सों में तोड़कर एक का चुनाव और दूसरे से इनकार द्वन्द पैदा करता है, यही द्वैत है |
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