एक बादशाह अपनी दाढ़ी में इत्र लगा रहा था। वह बहुत शौकीन था, इसलिए दाढ़ी को इत्र से सुगंधित करने का काम भरी सभा में कर रहा था। अचानक इत्र की एक बूँद नीचे गिर गई। बादशाह ने सबकी नजर बचाकर उसे उठा लिया, लेकिन जब वह उस इत्र की बूंद को चुपके से समेट रहा था तो उसे एक पैनी नज़र वाले वजीर ने देख लिया। संयोग की बात कि बादशाह भी यह समझ गया कि वजीर ने उसे इत्र की बूँद को जमीन से उठाकर दाढ़ी पर लगाते देख लिया हैं। जो होना था वह तो हो चुका था।
आत्मग्लानी से भरा बादशाह अपने को अपमानित अनुभव करने लगा। दूसरे दिन बादशाह ने अपने उस अपमान को सम्मान में बदलने की तरकीब सोची। जब दरबार भरा तो वह एक मटका इत्र लेकर आया जब उसे लगा कि सभी दरबारी राजकाज की चर्चा में अत्यधिक व्यस्तहैं तो उसने इत्र से भरे उस मटके को ऐसे लुढ़का दिया मानो वह स्वय गिर गया हो। इत्र बहने लगा। अपनी सुनियोजित तरकीब से बादशाह ने ऐसी मुद्रा बनाई मानो उस मटके भरे इत्र के बह जाने की उसे कोई परवाह न हो। इत्र बह रहा था।
बादशाह उसकी अनदेखी किए जा रहा था। वजीर तो आज भी अपनी जगह पर था। उसकी नजर भी हमेशा की तरह चौकन्ऩी थी। वह बोला, “शहंशाह! अब आप चाहे सौ मटके इत्र भी लुढ़का दो तो भी उस एक बूँद की जो चूक हो गई थी, उसकी भरपाई होने वाली नहीं हैं।”
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~ मानव-चरित्र की चूक भी ऐसी ही चूक होती हैं।
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