अध्यात्म

कण – कण में बसे है प्रभु

Written by Bhakti Pravah

भगवान ने ‘माया तत्व’ के बारे में कहा कि ‘माया (अज्ञान)’ भी मेरी ही शक्ति है । ‘मा’ = नहीं और ‘या’ = जो नहीं है फिर भी दिखाई दे यानि कि भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दे । माया सत्य को ढक देती है और असत्य का उद्घोष कर देती है । ईश्वर के बिना जो कुछ दिखाई देता है वहीं ईश्वर की माया है ।

हमें ‘मैं’ और ‘मेरे’ का भान माया के कारण ही होता है । मोह और माया से परे होने पर हम गुणातीत आत्माराम हो जाते हैं अर्थात् ‘मैं’ और ‘मेरे’ से कोई संबंध ही नहीं रहता । अज्ञान का आत्यंतिक विनाश करके परमात्मा की शरण लेना श्रेष्ठतम है । माया के कारण ही इस दृश्य – प्रपंच के साथ हमारा संबंध होता है और असत् सत्ता (संसार) के साथ आत्म – भाव पनपता है ।

माया भगवान की पहरेदार है जो भगवान से मिलने नहीं देती । माया ही भगवान से मिलने में बाधक है परंतु यदि हम भगवान को सच्चे मन से पुकारें तो भगवान स्वयं ही इस माया रूपी पहरेदार को हमारे और अपने बीच से हटा देंगे । ठाकुर हृदय की आवाज सुनते हैं, प्रेम से आवाज दो तो ठाकुर दौड़े चले आएंगे । हमको अपनी सम्पूर्ण शक्ति से हर पल, हर जगह भगवान का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिए ।
भगवान ने ब्रह्मा जी को ‘जगत सत्ता’ के बारे में बताया । भगवान ही स्वयं इस जगत (संसार) के रूप में विद्यमान हैं । भगवान ही स्वयं इस जगत (संसार) के रूप में विद्यमान हैं । भगवान से अलग जगत को कोई अस्तित्त्व है ही नहीं । “भगवान की सत्ता (अस्तित्त्व) से ही जगत की सत्ता (अस्तित्त्व) है” । संसार परिवर्तनशील रास्ता है । जिसके द्वारा जगत (संसार) में लोग आते – जाते रहते हैं, परंतु जगत ज्यों का त्यों रहता है । हम, हमारे पिता, हमारे दादा, परदादा उनके पिता इत्यादि इस रास्ते रूपी संसार से आकर चले भी गए और हम भी चले जाएंगे । लेकिन ये संसार ऐसे का ऐसा ही है । सम्पूर्ण भूत – प्राणी जहां समाए जा रहे हैं और जहां विलीन होते जाएंगे, वहीं जगत है । जगत परिवर्तनशील है ।

भगवान ने “भगवत् प्राप्ति का साधन” बताते हुए कहा कि कारण नित्य है, कार्य परिवर्तनशील एवं मिथ्या है । बिना कारण के कार्य की परिकल्पना भी व्यर्थ है । इसे यहां अन्वय व्यतिरेक के माध्यम से समझाया है ।
अन्वय = मिट्टी (कारण) के रहने पर घड़े (कार्य) का रहना ।
व्यतिरेक = घड़े (कार्य) के न रहने पर भी मिट्टी (कारण) का रहना ।
तत्व (मिट्टी) की द़ष्टि से घड़ा, सुराही, कुल्हड़ आदि सब एक हैं और घड़ा, सुराही, कुल्हड़ के न रहने पर भी मिट्टी (तत्व) ज्यों की त्यों ही रहती है ।

इसी प्रकार :
अन्वय = आत्मा (कारण) के रहने पर शरीर (कार्य) का रहना ।
व्यतिरेक = शरीर (कार्य) के न रहने पर भी आत्मा (कारण) का रहना । अत: शरीर के रहने अथवा न रहने पर भी आत्मा तत्त्व के रूप में सदा विद्यमान रहती है ।
“आत्मा, माया, जगत और भगवान को प्राप्त करने की विधि से पता चलता है कि यह संसार ब्रह्ममय है अर्थात् भगवान के अलावा यहां कुछ भी नहीं है । ”

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