अध्यात्म

आचरण से होती है व्यक्तित्व की पहचान

Written by Bhakti Pravah

एक समय की बात है कि शिव जी और सती जी अगस्त्य मुनि के पास राम कथा सुनने के लिए गए । ऋषि ने शिवजी के पैर छुए और शिव जी ने अगस्त्य जी को भक्ति का वरदान दिया । ठाकुर की लीला के वशीभूत होकर शिव जी ने सोचा कि मुनि कितने सरल हैं जो कि मेरे पैर छू रहे हैं । सरलता संत की कमजोरी नहीं बल्कि स्वभाव है । सती पूर्वाग्रह के कारण संत (अगस्त्य) की विनम्रता को उनकी कमजोरी समझ बैठीं ।
कथा सुनाने वाले के प्रति श्रद्धा के अभाव के कारण कथा का कोई प्रभाव नहीं होता । सती केवल कथा में बैठीं परंतु कथा सती में नहीं बैठ पायी ।
अगस्त्य जी महाराज ने कथा सुनाई । वहां केवल शिवजी ने ही कथा श्रवण की । कथा सुनकर जब शिवजी सती के साथ कैलाश की ओर जा रहे थे तब त्रेता युग था । अत: सीता वियोग में संतप्त हुए बनवासी राम ‘हा सीता, हा सीता’ पुकारते हुए जा रहे थे । शिव जी ने राम जी को देख कर गद् गद् होते हुए जय सच्चिदानंद कहकर प्रणाम किया ।

1. सत – जो तीनों कालों (सदा – सर्वदा) में सत्य हो ।
2. चिद् – जो सब कुछ जानता हो यानी सर्वज्ञ ।
3. आनंद – जो सदा खुश रहे ।

राजा दशरथ ने राम जी को चौदह वर्ष का बनवास दिया । सीता जी और लक्ष्मण जी भू उनके साथ वन में गए । सीता जी को साधु के वेश में रावण चुरा कर ले गया । अत: राम और लक्ष्मण नंगे पांव सीता जी को वन – वन ढूंढ रहे थे । राम जी साधारण मनुष्य की तरह सीता जी की विरह वेदना में विह्वल थे और पेड़ – पौधों से सीता जी का पता पूछ रहे थे –

हे मृग, खग, हे मधुकर श्रेनी, तुम देखी सीता मृगनैनी ?

राम जी के इस मानव तुल्य व्यवहार को देखकर सती जी को संशय हुआ कि त्रिलोकी के मालिक इस तरह नंगे पैर जंगल में पत्नी के विरह में कैसे घूम सकते हैं ? ये सच्चिदानंद कैसा ? सत् नहीं है क्योंकि सोने के मृग असत् है । असत् के पीछे भागे वह सत् कैसा ? चिद् नहीं क्योंकि चिद् का मतलब सर्वज्ञ होता है । अपनी पत्नी कहां गई, जिसे यह भी मालूम नहीं, तरूवरों से पूछे, वह सर्वज्ञ चिद् कैसा ? आनंद भी नहीं क्योंकि अपनी पत्नी के विरह में रोने वाला आनंद कैसा ? अत: सच्चिदानंद नहीं, नृपतनय है ।
व्यक्ति की परीक्षा सुंदर आचरण और व्यवहार से होती है । ठाकुर के चरणों का अनुसरण (पीछे – पीछे चलना) करना चाहिए । जिसे संशय (सती जी) रूपी रोग लसग जाए, वह कभी भी स्वस्थ नहीं रह सकता ।